Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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स्थानांगसूत्र के अन्तर्गत कहा है कि कर्मक्षय के कारणभूत शुद्धोपयोग में लीन रहना शुक्लध्यान कहलाता है।466
समवायांग के अनुसार- मन की आत्यन्तिक-स्थिरता, अर्थात् जब एकाग्रता सर्व शुभ-अशुभ भावों से निवृत्त होकर एकमात्र शुद्ध चैतन्यस्वरूप में स्थिर होती है, तब शुक्लध्यान होता है।467
धवलाटीका में लिखा है कि कषायमल का अभाव होना ही शुक्लध्यान है।468
ज्ञानार्णव में लिखा है कि जो निष्क्रिय है, इन्द्रियातीत है और ध्यान की धारणा से रहित है- वह शुक्लध्यान है।169
मूलाचार में भी स्पष्ट रूप से लिखा है कि जो आत्मा के विशुद्ध स्वरूप के साथ संपृक्त है, वह शुक्लध्यान है।470
आगमसार में कहा है कि निर्मल-विशुद्ध विचार शुक्लध्यान है।
जिस प्रकार मैल के धुल जाने पर वस्त्र साफ हो जाता है, उसी प्रकार दुर्गुणरहित निर्मल गुणों से युक्त आत्मा की परिणति ही शुक्लध्यान है।472
यह भी सत्य है कि धर्मध्यान में पूर्णता प्राप्त अप्रमत्त संयमी ही शुक्लध्यान करने में समर्थ हो सकता है, क्योंकि जब तक पहली सीढ़ी (धर्मध्यान) नहीं चढ़ेगा, तब तक दूसरी कैसे चढ़ पाएगा ?473
यह ध्यान आत्मसिद्धि का अन्तिम सोपान है। जो ध्यान सम्पूर्ण कर्माग्नि (कषायाग्नि) को बुझा देता है तथा समग्र कर्मदलिकों को समाप्त कर देता है, वह ध्यान
466 स्थानांगसत्र-4/1/69. 467 (क) निष्क्रिय करणातीतं ध्यान ध्येयविवर्जितम्। .
___ अन्तर्मुखं तु यद्ध्यानं, तच्छुक्लं योगिनो विदुः।। – नियमसार (टीका), पृ. 169. (ख) समवायांगसूत्र-4/20. 468 षट्खण्डागम, धवलाटीका, पुस्तक- 13, पृ. 73. 469 निष्क्रिय करणातीतं ध्यानधारणवर्जितम् ।
अन्तर्मुखं च यच्चित्तं तच्छुक्लमिति पठ्यते।। - ज्ञानार्णव- 39/4.2 470 मूलाचार- 5.207-208, पृ. 261-262. 471 आगमसार, पृ. 174. 472 यथा मलद्रव्यापायात् शुचिगुणयोगाच्छुक्लं वस्त्रं तथा तद्गुणसाधादात्मपरिणामस्वरूपमपि
शुक्लमिति निरूच्यते।। – राजवार्त्तिक -9/28/4/627. 473 इच्चेवमदिक्कतो धम्मज्झाणं जदा हवइ खवओ।
सुक्कज्झाणं झायदि तत्तो सुविसुद्धलेस्साओ।। - भगवतीआराधना- 1871.
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