Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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11. लिंग - द्वार ध्यानशतक ग्रन्थ की गाथा क्रमांक सड़सठ एवं अड़सठ के
अन्तर्गत धर्मध्यान के सन्दर्भ में लिंगद्वार की चर्चा की गई है। इसमें बताया गया है कि आगम की आज्ञा के अनुसार वर्त्तन करने वाला तथा तीर्थकरों द्वारा कथित द्रव्यादि पदार्थों के स्वरूप को जानने वाला, श्रद्धावान् साधक ही धर्मध्यान का अधिकारी होता है । धर्मध्यान का साधक सदैव साधुजनों की प्रशंसा में रत रहता है, उनका गुण-कीर्त्तन करता है, उनके प्रति विनयभाव, दान देने के भाव रखता है ।
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इन सबसे फलित होता है कि धर्मध्यान को ध्याने वाले व्यक्ति में सद्गुणों का 'संचार होता है, अतः यह तो सिद्ध है कि धर्मध्यान की अवस्था तक शील, सदाचार, संयम आदि की वृत्ति रहती है । 465
शुक्लध्यान का स्वरूप जैनधर्म विशुद्ध रूप से आध्यात्मिक-धर्म है। उसका प्रारंभ बिंदु है- आत्मा का संज्ञान और उसका चरमबिन्दु है - आत्मोपलब्धि, अर्थात् आत्मा
का साक्षात्कार ।
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सामान्यतः, शुक्ल का अर्थ 'धवल' से लिया जाता है, किन्तु जैन-ग्रन्थों में शुक्ल का अर्थ 'विशद्', अर्थात् निर्मल से लिया गया है।
शुक्लध्यान ध्यान की वह अवस्था है, जिसमें साधक अपने लक्ष्य की पूर्णता को प्राप्त करता है, क्योंकि इस ध्यान में मन की एकाग्रता के कारण आत्मा परम विशुद्धता को प्राप्त होती है और कषाय, राग आदि भावों, अथवा कर्मों का सर्वथा परिष्कार हो जाता है। सामान्य रूप से यह कहा जा सकता है कि आत्मा की अत्यन्त विशुद्ध - अवस्था को शुक्लध्यान कहते हैं ।
आगम-उवएसाऽऽणा - णिसग्गओ जं जिणप्पणीयाणं । भावाणं सद्दहणं धम्मज्झाणस्स तं लिंगं । । जिणसाहुगुणुक्कित्तण- पसंसणा - विणय - दाणसंपण्णो । सुअ-सील झंजमरओ धम्मज्झाणी मुणेयव्वो ।।
वही
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T-67-68.
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