Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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वृद्धावस्था, मृत्यु की वेदना से तड़पना पड़ता है।462 देवगति में भौतिक-सामग्री आदि के कारण झगड़ा होता रहता है। जीव संसाररूपी दुर्गम वन में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव से ग्रसित पंच संसार में मिथ्यात्व के तीव्रोदय से दुःखित होकर परिभ्रमण करता रहता है। सुई की नोक जितनी जगह भी लोकाकाश की शेष नहीं रही, जहां जीवात्मा ने जन्म न लिया हो।
जो चार गतिरूप संसार में यह जीवं परवशतावश परिभ्रमण करता रहता है, उसका चिन्तन करना संसारानुप्रेक्षा है।
संक्षेप में यही समझना है कि जैन दार्शनिकों ने धर्मध्यान के विभिन्न द्वारों की चर्चा करते हुए कहा है कि प्रस्तुत ग्रन्थ में अनुप्रेक्षाद्वार या भावनाद्वार को सबसे महत्वपूर्ण माना है, क्योंकि कषाय या विकारों के निसरन के लिए उनकी निरर्थकता को समझना आवश्यक होता है और इस निरर्थकता का बोध अनुप्रेक्षा, अर्थात् चिन्तन के द्वारा होता है।
कषायों या रागद्वेष की जो गाठे बंधी हैं, उनको ढीला करने के लिए अनुप्रेक्षा आवश्यक है। चिन्तन के माध्यम से कलुषभाव या रागद्वेष की प्रवृत्तियां समाप्त होती हैं। हमारी चित्तवृत्तियों का पर्यालोचन या अनुचिन्तन आवश्यक है। जैनसाधना के अनुसार, रागद्वेष और मोह ही संसार-वृद्धि का मूल कारण हैं। इनके माध्यम से संक्लिष्ट भाव उत्पन्न होते हैं, जो हमारी आत्मिक-शान्ति को भंग करते हैं। रागादि भाव के कारण ही यह जीव संसार से जुड़ा हुआ है। इन रागादिक भावों को समाप्त करने के लिए ही अनुचिन्तन या भावना आवश्यक है।463
आचार्य जिनभद्रगणि ने आर्त्त-रौद्रध्यान से विमुक्त होने के लिए और धर्मध्यान में चित्तवृत्ति को स्थैर्य प्रदान करने के लिए भावनाओं या अनुप्रेक्षाओं को आवश्यक माना है, क्योंकि भावना या अनुप्रेक्षा के माध्यम से जब व्यक्ति को अनित्यता अर्थात् संयोगों के वियोग की अशरणता, एकाग्रता आदि का बोध होता है, तो उसका 'पर' से जुड़ाव समाप्त हो जाता है और उसके फलस्वरूप व्यक्ति का धर्मध्यान से शुक्लध्यान की ओर अधिगमन होता है। यही कारण है कि जिनभद्रगणि ने धर्मध्यान की साधना के लिए सर्वप्रथम भावनाओं का निर्देश किया है। वे कहते हैं कि भावना के सतत अभ्यास से
462 उत्तराध्ययनसूत्र- 14/4. 463 झाणस्स भावणाओ........... || - ध्यानशतक, गाथा- 28.
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