Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
View full book text
________________
177
सारांश यह है कि आज का मानव बड़ा दिग्भ्रान्त रहता है। वह समझता है कि वह अकेला नहीं है, उसके अनेक सम्पन्न, सबल, कुटुम्बीजन हैं, परन्तु यह एक अज्ञानजनित भ्रान्ति है।
अनित्यानुप्रेक्षा - संसार में दृश्यमान् व प्रतीयमान् कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं है, जो नित्य हो, अर्थात् सब अनित्य हैं, विनाशी हैं। सुख-दुःख, परिस्थिति, अवस्था, तन, मन, धन, स्वजन, परिजन, मित्र, भूमि, भवन आदि सब अनित्य हैं, अर्थात् पदार्थों की अनित्यता का प्रत्यक्ष अनुभव कर समभाव में अवस्थित रहना, न रागात्मक अथवा न द्वेषात्मक प्रतिक्रिया करना ही अनित्यानुप्रेक्षा है।421
स्थानांगसूत्र के अनुसार, सांसारिक-वस्तुओं की अनित्यता का चिन्तन ही अनित्य-अनुप्रेक्षा है।422
ध्यानदीपिका में कहा गया है कि धन का सुख, शरीर का सुख आदि संसार के समस्त सम्बन्ध विनश्वर हैं, यहां तक कि देव और मनुष्येन्द्र (चक्रवर्ती) का ऐश्वर्य, यौवन आदि भी अनित्य हैं।423
अध्यात्मसार में लिखा है कि इन्द्रियों के विषय, धन, यौवन और यह शरीर आदि सभी अनित्य हैं।424
प्रशमरतिप्रकरण25. शान्तसुधारस25. ज्ञानार्णव 27, स्वामीकात्तिकेयानुप्रेक्षा29, अध्यात्मतत्त्वालोक29, तिलोककाव्यसंग्रह 30 आदि ग्रन्थों
421 ध्यानशतक, गाथा- 65. 422 स्थानांगसूत्र- 4/1/68, मुनिमधुकर, पृ. 224. 423 सर्वेभव संबंधा विनश्वरा विभवदेहसुखमुख्याः ।
अमरनरेन्द्रैश्वर्यं यौवनमपि जीवितमनित्यम्।।
अक्षार्थाः पुण्यरूपा .................... भावनामित्यनित्या।। - ध्यानदीपिका, श्लोक- 14-16. 424 अध्यात्मसार- 16/70. 425 इष्टजनसंप्रयोगद्धिविषयसुखसम्पदस्तथारोग्यम् ।
देहश्च यौवनं जीवितश्च सर्वाण्यनित्यानि।। - प्रशमरतिप्रकरण, श्लोक- 151. 426 वपुरिवपुरिदं विदभ्रलीलापरिचितमप्यतिभगुरं नराणाम् ।
तदतिभिदुरयौवनाविनीतं भवति कथं विदुषां महोदयाय ।। - शान्तसुधारस, अनित्य - 7, पृ. 79. 427 हृषीकार्यसमुत्पन्ने प्रतिक्षणविनश्वरे ....... || - ज्ञानार्णव- 2/8-47. 428 जं किंचिवि उप्पण्णं तस्स ......... || - स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा- 4, 7, 8, 9, 21, 22.
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org