Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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में अनित्यानुप्रेक्षा का निरूपण करते हुए लिखा गया है कि संसार में उत्पन्न सभी वस्तुएं पर्यायरूप से नाशवान् हैं, अनित्य हैं। भरत चक्रवर्ती ने प्रस्तुत अनुप्रेक्षा का चिन्तन किया, तो केवलज्ञान प्राप्त कर लिया, अतः एकमात्र आत्मा ही सिद्ध, बुद्ध, निरंजन एवं अनन्तानन्दमय है और संसार के समस्त पर-पदार्थ अनित्य हैं- ऐसा चिन्तन-मनन करना ही अनित्यानुप्रेक्षा है।
संक्षेप में समझना है कि सांसारिक पर-पदार्थ नश्वर हैं, अनित्य हैं। ये भौतिक-सामग्रियां पथभ्रष्ट बना देती हैं, अतः अनित्यानुप्रेक्षा का चिन्तन-मनन सांसारिक-पदार्थों में विद्यमान आसक्ति को दूर करती है।
अशरणानुप्रेक्षा - इस अनुप्रेक्षा में साधक अन्तर्जगत् में शरीर और संवेदनाओं की अनित्यता का अनुभव करता है। ध्यानमग्न साधक देखता है, अनुभव करता है कि तन प्रतिक्षण बदल रहा है। संसार स्वार्थमय है, कोई शरणभूत नहीं है- ऐसी अनुभूति के स्तर पर बोध कर अनित्य पदार्थों के आश्रय का त्याग कर देना , अविनाशी स्वरूप में स्थित हो जाना अशरणानुप्रेक्षा है।431
- स्थानांगसूत्र के अनुसार, जीव के लिए धन, परिवार आदि शरणभूत नहीं हैऐसा चिन्तन करना अशरणानुप्रेक्षा है।432
ध्यानदीपिका में लिखा है कि इहलोक एवं परलोक में देव, मनुष्य, इन्द्र, विद्याधर, किन्नर- कोई भी किसी का त्राणदाता नहीं है, अर्थात् शरणभूत नहीं है। लाख कोशिशों के बावजूद भी कोई किसी का रक्षण नहीं कर सकता है- ऐसा चिन्तन अशरणानुप्रेक्षा है।433
429 अध्यात्मतत्वालोक- 5/26-27. 430 तिलोककाव्यसंग्रह, पृ. 83. 431 ध्यानशतक, गाथा- 65.
स्थानांगसूत्र-4/1/68. 33 न त्राणं नं हि शरणं सुरनरहरिखेचरकिन्नरादीनाम् । यमपाशपाशितानां परलोकगच्छतां नियतम् ।।
............. चिन्तयेत।। -ध्यानदीपिका- 17-19.
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