Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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को स्वीकार करती है, जबकि श्वेताम्बर - परम्परा में सातवें गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक की आत्माओं को धर्मध्यान का साधक माना जाता है ।
शुक्लध्यान के ध्याता के सम्बन्ध में जिनभद्रगणि ने निम्न योग्यताओं का वर्णन किया है, जैसे- जो पूर्व का ध्याता हो, सुप्रशस्त संहनन वाला हो तथा सयोगी, अयोगी केवली हो, वह शुक्लध्यान का ध्याता माना जाता है। इसमें यह भी स्पष्ट हो जाता है कि आर्त्तध्यान के ध्याता प्रथम गुणस्थान से छठवें गुणस्थान तक के जीव हो सकते हैं। इस सम्बन्ध में यह विशेषता समझना चाहिए कि रौद्रध्यान का ध्याता प्रथम मिथ्यादृष्टि - गुणस्थान में होता है। इस प्रकार, रौद्रध्यान के ध्याता मिथ्यादृष्टि प्रथम गुणस्थानवर्ती जीव होते हैं। आर्त्तध्यान के ध्याता प्रथम गुणस्थान से लेकर छठवें गुणस्थानवर्ती जीव होते हैं । धर्मध्यान के ध्याता सातवें गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान तक होते हैं, क्षपक-श्रेणी में पूर्वधर महात्मा को नौवां, दसवां, बारहवां गुणस्थान भी हो सकता है और शुक्लध्यान के ध्याता तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में पाए जाते हैं ।
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योगशास्त्र'०2, अध्यात्मसार 103, ज्ञानसार 104, ध्यानदीपिका 105, आदि ग्रन्थों में धर्मध्यान के ध्याता का उल्लेख मिलता है कि परीषह और उपसर्ग आने पर भी जो सुमेरु पर्वत की तरह निष्कम्प रहता है, जो शान्त, दान्त मुनि आत्मरमणता में स्थित रहता है, जो आसक्तिरहित, दृढ़ संहनन वाला, निष्परिग्रही, ज्ञानवैराग्य आदि भावनाओं से ओतप्रोत जितेन्द्रिय, धैर्ययुक्त, प्रसन्नचित्त वाला, प्रमाद - रहित है और सदा ज्ञानानन्दरूपी अमृतास्वादन करने वाला है, वह प्रबुद्ध ध्याता ध्यान करने योग्य होता है ।
9. अनुप्रेक्षा-द्वार
है कि जिस मुनि का चित्त पहले से ही धर्मध्यान से होने पर भी नित्य, अनित्यादि भावनाओं के चिन्तन में
402
सुमेरुरिव निष्कम्पः 403 मनसश्चेन्द्रियाणां च जयाद्यो 404 जितेन्द्रियस्य धीरस्य
405 ज्ञानवैराग्यसम्पन्नः संवृतात्मा 406 झाणोवरमेऽवि मुणी णिच्चमणिच्चाइचिंतणापरमो । होइ सुभावियचितो धम्मज्झाणेण जो पुव्विं । । -
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ध्यानशतक के अनुप्रेक्षा -द्वार के अन्तर्गत कहा गया
सुभावित है, वह ध्यान से उपरत संलग्न रहता है। 406
सुधीर्ध्याता प्रशस्यते । ।
योगशास्त्र - 7/7.
सैव साधकयोग्यता ।। - अध्यात्मसार - 16/62-3-8. सदेवमनुजेऽपिहि ।। – ज्ञानसार- 30/6–8.
स्यात् शुद्धमानसः ।। ध्यानदीपिका- 130-133.
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ध्यानशतक, गाथा- 65.
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