Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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चार माने गए हैं।399 दूसरे शब्दों में, धर्मध्यान के जो चार भेद हैं, वही यहां ध्यातव्य-द्वार के चार भेद बताए हैं1. आज्ञाविचय 2. अपाचविचय 3. विपाकविचय 4. संस्थानविचय।
संक्षेप में, जिनाज्ञा का चिन्तन करना आज्ञाविचय है। आज्ञाविचय के सन्दर्भ में यह कहा गया है कि सुनिपुण अर्थात् कुशलजनों को भूतहित का विचार करना चाहिए। दूसरे यह कि जिनाज्ञा का स्वरूप समझने के लिए दुर्नय का परित्याग करके सुनय-भंग-प्रमाण से जानना चाहिए।
क्रोधादि कषाय और राग-द्वेष आत्म-कल्याण में बाधक हैं- इस बात का चिन्तन करना अपायविचय है।
कर्मप्रकृतियों के विपाक का चिन्तन करना विपाकविचय है।
लोक के स्वरूप और उसमें जीव के परिभ्रमण का चिन्तन करना संस्थानविचय-ध्यान है।
__ इस प्रकार, ध्यातव्य-द्वार में मुख्य रूप से धर्मध्यान के उपर्युक्त चारों प्रकारों का ही जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने विस्तार से उल्लेख किया है और उसकी टीका में आचार्य हरिभद्र ने उसको विस्तार से विवेचित किया है। यह ध्यातव्य-द्वार मूल ग्रन्थ की गाथा क्रमांक पैंतालीस से बासठ तक दस गाथाओं में चर्चित है।400
8. धातृ-द्वार - धातृ-द्वार के अन्तर्गत मूल ग्रन्थकार कहते हैं कि सर्वप्रमादों से रहित क्षीणमोह और उपशान्तमोह साधक धर्मध्यान के ध्याता माने गए हैं।401 इस प्रकार जिनभद्रगणि के अनुसार सातवें गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान के बीच धर्मध्यान के ध्याता माने गए।
यहां यह ज्ञातव्य है कि धर्मध्यान के ध्याता को लेकर श्वेताम्बर और दिगम्बर -परम्पराओं में मतभेद हैं। दिगम्बर-परम्परा चौथे गुणस्थान से धर्मध्यान की सम्भावना
399 तत्रानपेतं यद् धर्मात्तद्ध्यानं धर्म्यमिष्यते। धर्मोऽहि वस्तु-याथात्म्यमुत्पादादि प्रयात्मकम् ।।
- श्रीजिनसेनाचार्यकृत महापुराण, पर्व- 21, श्लोक- 133. 400 सुनिउणमणाइणिहणं ........... समयसब्भावं।। - ध्यानशतक, गाथा- 45-62. 1 सव्वप्पमायरहिया मुणओ खीणोवसंतमोहा य। झायारो नाणधणा धम्मज्झाणस्स निद्दिट्ठा।। - ध्यानशतक- 63.
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