Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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देने योग्य है कि ध्यानी पूर्वाभिमुख अथवा उत्तराभिमुख ही होना चाहिए- ऐसा कोई नियम नहीं है।383
इसके अतिरिक्त, अनेक जैनग्रन्थों में ध्यान के आसनों के सम्बन्ध में काफी विचार-विमर्श हुआ। साधारणतया, पद्मासन, पर्यकासन एवं खड्गासन आदि ध्यान के महत्त्वपूर्ण आसन माने जाते हैं।384
स्थानांगसूत्र में विविध आसनों का विवेचन है।385
औपपातिकसूत्र में एक स्थान पर भगवान् महावीर के अनगारों की उत्कृष्ट धर्माराधना का विवेचन हुआ है, स्वरुचि साधक आराधना-साधना में लीन रहते थे। कुछ साधक अपने दोनों घुटनों को ऊंचा उठाए, मस्तक को नीचा किए, एक विशेष आसन में अवस्थित होते हुए ध्यानरूपी कोष्ठ में प्रविष्ट होते थे, अर्थात् ध्यानरत रहते थे।386
सामान्यतया, जैन-परम्परा के अन्तर्गत पद्मासन और खड्गासन ही ध्यान हेतु अधिक प्रख्यात आसन रहे हैं,387 किन्तु कल्पसूत्र में यह उल्लेख भी मिलता है कि जब महावीर को केवलज्ञान प्रकट हुआ, तब वे गोदुहासन में स्थित थे।388
श्री परमात्मद्वात्रिंशिका के कर्ता आचार्य अमितगति ने कहा है कि ध्यान का आसन न संस्तर है, न पाषाण है, न त्रण है, न भूमि है और न काष्ठफलक है, किन्तु जिसके अन्तःकरण से विषय-कषायरूप शत्रु नष्ट हो गए हैं, उसी निर्मल साधक को ज्ञानीजनों ने ध्यान का आसन माना है।389
383 पद्मासनादिना येना-सनेनैव सुखी भवेत् । ध्यानं तेनासनेन स्याद् ध्यानानि ध्यानसिद्धये। पूर्वाभिमुखो ध्यानी न चोत्तराभिमुखोऽथवा। प्रसन्नवदनो धीरो ध्यानकाले प्रशस्यते।।
_ - ध्यानदीपिका- 116-117. 384 (क) ठाणं (सुत्तागमे) - 5/1/494.
(ख) आयारे (सत्तागमे) - 1/9/4/512, 2/3/1/700-702. (ग) अध्यात्मतत्त्वालोक- 3/94-97.
(घ) ज्ञानार्णव- 28/9-10. 385 पंच णिसिज्जाओ पण्णताओ, तं जहा-उक्कुडुया, गोदोहिया, समपायपुता पलियंका __ अट्ठपलियंका। - स्थानांगसूत्र- 5/1/50, स. मधुकरमुनि, पृ. 465. 386 औपपातिकसूत्र- 31, पृ. 80. 387 ज्ञानार्णव- 28/10. 388 गोदोहियाए उक्कुडयनिलिज्जाए। - कल्पसूत्र- 120. 389 नसंस्तरोऽश्मा न तणं न मेदिनी, विधानतो नो फलको विनिर्मितः।
यतो निरस्ताक्ष-कषाय-विद्विषः सुधीभिरात्मैव सुनिर्मलो मतः । - श्री परमात्म द्वात्रिंशिका- 22. 390 भेद में छिपा अभेद। – यु. महाप्रज्ञ, पृ. 110.
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