Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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पण्डित प्रभुदास बेचरदास पारेख ने कहा है कि धर्म का तात्पर्य है - विकासमार्ग और वह खासतौर पर आध्यात्मिक - जीवन है । 188
मोह-क्षोभरहित (रत्नत्रयरूप) आत्मा की निर्मल परिणति को भी धर्म कहा जाता
है। 189
संक्षिप्त में, यह समझना है कि जिन पवित्र क्रियाओं से आत्मा का शुद्धिकरण होता है, उन क्रियाओं का नाम धर्म है । रत्नत्रय का चिन्तन, संसार की असारता का चिन्तन-म - मनन ही धर्मध्यान कहा जाता है।
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धर्मध्यान के लक्षण
प्रतिपादन करते हुए लिखा है
1. आगमरुचि 2. उपदेशरुचि 3. आज्ञारुचि 4. निसर्गरुचि - इन चारों लक्षणों के अनुसार उच्चारण करने वाले की जिन - प्रतिपादित भावों, तत्त्वों, पदार्थों में जो आस्था या श्रद्धा है, वह ही धर्मध्यान के लक्षण अथवा लिंग हैं और इसी के आधार से जाना जाता है कि अमुक व्यक्ति धर्मध्यान की अवस्था में स्थित है या नहीं । '
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1. आगमरुचि आगमरुचि को सूत्ररुचि के नाम से भी जाना जाता है। सूत्रों का संकलन आगम कहलाता है। यह दो भागों में विभाजित है- 1. अर्थसमूहरूप और 2.
शब्दसमूहरूप |
शब्दसमूहरूप गणधरप्रणीत हैं, जबकि अर्थसमूहरूप तीर्थकरप्रणीत हैं। 192 आगम से तत्त्वों का ज्ञान होता है । आगम को परिभाषित करते हुए विशेषावश्यकभाष्य में कहा गया है- 'जिससे सही शिक्षा प्राप्त होती है, विशेष ज्ञान उपलब्ध होता है, वह शास्त्र, आगम या श्रुतज्ञान कहलाता है।'
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188 जैनशासन के पांच अंग, ले. प्रभुदास बेचरदास पारेख, पृ. 01. आत्मनः परिणामो I `तत्त्वानुशासन, श्लोक - 52.
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'ध्यानशतक' के कर्त्ता ने धर्मध्यान के लक्षणों का
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आगम-पच्चीसबोल, 19वां बोल, पृ. 105. आगम-उवएसाऽऽणा - णिसग्गओ जं जिणप्पणीयाणं ।
भावाणं सद्दहणं धम्मज्झाणस्स तं लिंगं । । - ध्यानशतक, गाथा - 67.
अत्थं भासइ अरहा, सुत्तं गंथति गणहरानिउणं ।
सासणस्स हिट्ठाए, तओ सुत्तं पवत्तइ ।। - आवश्यकनिर्युक्ति, गाथा - 192.
193 सासिज्ज जेण तयं सत्थं चाऽविसेसियं नाणं ।
विशेषावश्यकभाष्य, गाथा - 559.
आगम एवं य सत्थं आगमसत्थं तु सुयनाणं । ।
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