Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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ये भावनाएं ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वैराग्य से सम्बन्धित हैं।325 श्रीमद्भागवतगीता26 में भावना के स्वरूप एवं उसके भेद का वर्णन करते हुए लिखा है
योगारूढ़स्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते। आरूरूक्षोरभ्यासः ज्ञान-दर्शन-चारित्र-वैराग्यभेदाच्चतुर्धा ।।327 योगारूढ़ होने के इच्छुक मुनि के लिए निष्काम कर्म (योग की साधना) ही साधन है, परन्तु योगारूढ़ में स्थित हुए मुनि के लिए समत्व ही मोक्ष का साधन है।
योगसाधना में आरोहण करने के अभिलाषी साधक के अभ्यास ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वैराग्य-भावना के भेद से चार प्रकार के हैं।
न्यायकोश में कहा है- 'जैसा बनना है, उसके अनुरूप भावुक आत्मा की प्रवृत्ति (व्यापार) विशेष भावना है। 328
1 (अ). ज्ञान-भावना - ध्यानशतक में ध्यान की जिन विभिन्न भावनाओं की चर्चा की गई है, उसमें सर्वप्रथम ज्ञान-भावना का उल्लेख हुआ है। मूल ग्रन्थकार एवं टीकाकार हरिभद्रसूरि यह मानते हैं कि ज्ञान अर्थात् श्रुतज्ञान के नियमित अभ्यास से ही मन अयोग्य विषयों से निवृत्त होकर आत्मविशुद्धि को प्राप्त होता है। ज्ञान-भावना के माध्यम से साधक अपनी विभाव एवं स्वभाव-दशा समझ सकता है, या दूसरे शब्दों में कहें, तो वह जीव-अजीव के स्वरूप अथवा द्रव्य के स्वरूप का ज्ञाता होता है और उसे यह बोध हो जाता है कि कौन-सी पर्याय जीव की स्वभाव-पर्याय है और कौन-सी विभाव-पर्याय है ? इस तरह से वह विभाव-दशा से हटकर स्वभाव-दशा में स्थिर होता. है, साथ ही स्व में स्थित रहकर आत्मविशुद्धि को प्राप्त करता है।29
325 (क) पुवकयब्भासो भावणाहिं झाणस्स जोग्गयमुवेई।
ताओ य नाण-दसण-चरित्त-वेरग्गजणियाओ।। - ध्यानशतक, गाथा- 30. (ख) ज्ञानदर्शन चारित्र वैराग्याख्याः प्रकीर्तिताः। - अध्यात्मसार- 16/19.
(ग) ज्ञानदर्शनचारित्र्यं वैराग्याद्यास्तथा पराः।। - ध्यानदीपिका, श्लोक-7. 326 श्रीमद्भगवतगीता, अध्याय- 6, श्लोक- 3. 327 तुलना- आरूरूक्षुर्मुनिर्योगं श्रयेद् बाह्यक्रियामपि।
योगारूढ शमादेव शद्धयत्यन्तर्गतक्रियः।। - ज्ञानसार, शमाष्टक, श्लोक-3. 328 भवितुर्भवनानुकूलो भावयितुर्व्यापार विशेषः भावना। - न्यायकोश, पृ. 626. 329 णाणे णिच्चमासो कुणइ मणोधारणं विसुद्धिं च।
नाणगुणमुणियसारो तो झाइ सुनिच्चलमईओ।। - ध्यानशतक, गाथा- 31.
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