Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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ध्यानदीपिका में लिखा है कि पढ़ना, पूछना, यथार्थ तात्पर्य का चिन्तन-मनन करना, पुनरावर्तन करना और धर्म-उपदेश (स्व–पर हिताय) देना- यह सब ज्ञान-भावना है।335
1 (ब). दर्शन-भावना - ध्यानशतक में कहा है कि शंकादि से रहित होकर स्वभाव-दशा में स्थिर रहने के लिए दर्शन-भावना आवश्यक है।
आचार्य हरिभद्र ने ध्यानशतक की टीका में यह स्पष्ट किया है कि शंकादि दोषों से रहित स्व-स्वरूप में अवस्थिति ही ध्यान के माध्यम से दर्शन-विशुद्धि का आधार बनती है। वे लिखते हैं कि शंकादि दोषों से रहित तथा प्रशम, स्थैर्य आदि गुणों से युक्त विवेकवान् साधु ही ध्यान से दर्शन-विशुद्धि को प्राप्त होता है और इसी ज्ञान के विकास तथा दर्शनविशुद्धि के द्वारा वह आगे चारित्र-भावना में आरोहण करता है।336 .
आचारांगसूत्र की चूलिका की गाथा क्रमांक तीन सौ उनतीस से तीन सौ चौंतीस में दर्शन-भावना की विवेचना की गई है। तीर्थकरों, गणधरों आदि का दर्शन, कीर्तन, स्तवना, स्तोत्रों आदि एवं पुष्पमाला से पूजन, अर्चन करना, गुणगान करना दर्शनभावना है। निरन्तर अभ्यास द्वारा दर्शन-भावना के माध्यम से आत्मा के दर्शन की विशुद्धि होती है।337
तत्त्वार्थसिद्धवृत्ति में कहा है कि शंकादि शल्य से रहित, सम्मोह से रहित, संवेग-निर्वेद आदि गुणों से युक्त, दर्शन-भावना से युक्त, निर्मल बुद्धि वाला जीव निरन्तर धर्मध्यान में आगे बढ़ता है।38 संक्षेप में, राग-द्वेषादि भावों से रहित होकर
335 वाचना पृच्छना साधुप्रेक्षणं परिवर्तनम्।
सद्धर्मदर्शनं चेति ज्ञातव्या ज्ञानभावना ।। – ध्यानदीपिका- 2/8. 336 (क) संकाइदोसरहिओ पसम-थेंज्जाइगुणगणोवेओ।
होइ असंमूढमणोदसणसुद्धीय झाणंमि।। – ध्यानशतक, गाथा- 32. (ख) शंकादिदोषरहित इति शङ्कनं शङ्का .......... प्रश्रम, स्थैर्यादिगुणगणोपेतः ।।
- ध्यानशतकटीका, हरिभद्रीय. 337 दंसणनाणचरित्ते तववेरग्गे य होइ उ पसत्था। जाय जहा ता य तहा लक्खण वुच्छ सलक्खणओ। तित्थगराण ......... इयं एसा दंसणे होई।।
- आचारांगसूत्रे, चूलिका- 3. 338 तथा विगतशङकादिशल्यः प्रशम-संवेग-निर्वेदाऽनकम्पाऽऽस्तिक्य-स्थैर्य-प्रभावना-यतनासेवन भक्तियुक्तः असम्मूढचेता दर्शनभावनया विमलीकृतमतिरस्खलितमेव धर्म ध्यायति।।
- तत्त्वार्थसिद्धवृत्तौ.
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