Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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आचारांगसूत्र की चूलिका में कहा है- अहिंसा-स्वरूप वाली पांचों महाव्रतों की भावना बहुत ही सुन्दर व शुभ है- यह जिनवाणी का यथार्थ कथन है। बारह प्रकार के तप का वर्णन मात्र जिनशासन में ही है, अन्य दर्शन में नहीं, अतः ये चारित्र-भावना के लक्षण हैं।344 - तत्त्वार्थसिद्धवृत्ति 45 में कहा है- चारित्र-भावना में स्थित जीव नए कर्मों को ग्रहण नहीं करते, साथ ही पुराने कर्मों की निर्जरा करते हैं और शुभ कर्मों का संचय करते हुए धर्मध्यानी होते हैं। ..
अध्यात्मसार के कर्ता यशोविजयजी ने चारित्र-भावना का वर्णन करते हुए कहा है- 'प्रस्तुत भावना का अभ्यास करने वाले को इन्द्रियों पर नियंत्रण प्राप्त करके विषयों
और कषायों पर विजय प्राप्त करना चाहिए। हिंसादि सावद्य-क्रियाओं से हटकर बारह प्रकार के तपों में रमण करना और समिति, गुप्ति का पालन करना चाहिए।346: - ध्यानविचार में कहा है कि चारित्र-भावना के भी तीन स्तर हैं। वे निम्नांकित
1. सर्वविरत
2. देशविरत
और 3.अविरत।47
ध्यानदीपिका के अनुसार गमनागमन आदि के सम्बन्ध में संयम, निग्रह करना, मन-वचन-काया का गोपन करना एवं परीषह सहन करना ही चारित्र-भावना है।348
___ रागादिभावों से रहित होकर समभाव की साधना के अभ्यास का नाम ही चारित्र-भावना है। इनमें चार कार्य होते हैं1. आसवों को रोकना 2. पूर्वसंचित कर्मों की निर्जरा 3. समिति, गुप्ति में शुभ प्रवृत्ति 4. ध्यान की सहज प्राप्ति।349 -
344 साधु शोभनोऽहिंसादिलक्षणो धर्म इति प्रथमव्रतभावना, तथा सत्यमस्मिन्नेवार्हते प्रवचने साधु _शोभनं ............ द्वादशाङ्गं तप इहैव शोभनं नान्यत्रेति। - आचारांगसूत्र, चूलिका- 3. 345 ..... तथाचरणभावनाधिष्ठितः कर्माष्यपराणिनादत्ते, पुरातननिर्जरणं शुभानि वा सञ्चिनुते
ततश्चायत्नेनैव धर्मध्यायी भवति।। - तत्त्वार्थसिद्धवृत्तौ. 346 अध्यात्मसार- 16/19-20. आ चारित्र-भावना-सर्वविदित देशविरत-अविरत-भेदात् त्रिधा ।। –ध्यानविचार-सविवेचन, पृ. 174. 348 ईर्यादिविषया यत्ना मनोवाककायगुप्तयः । परिषहसहिष्णुत्वमिति चारित्रभावना।। - ध्यानदीपिका- 2/10. 349 जैनसाधना-पद्धति में ध्यानयोग, पृ. 268.
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