Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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सम्यक् दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रयी के सतत अभ्यास से ध्यान की योग्यता प्रकट होती है।
2. देश-द्वार - ध्यानशतक में कहा है कि ध्यान की साधना के लिए क्षेत्र का भी महत्त्व है। युवतियों, पशुओं, नपुंसकों और निंदनीय आचरण करने वाले व्यक्तियों से शून्य अथवा एकान्त स्थान को साधु के आवास एवं ध्यान के योग्य माना गया है। ध्यान के लिए तो विशेष रूप से एकान्त ही होना चाहिए।357
सामान्यतया, यह माना जाता है कि एकान्त-क्षेत्र में ध्यान-साधना अच्छी तरह से होती है, किन्तु जैनदर्शन की मान्यता यह है कि ध्यान की साधना का सम्बन्ध किसी स्थान-विशेष से नहीं है। सक्षम साधक के लिए जनाकीर्ण स्थान पर भी वह सम्भव है, फिर भी टीकाकार हरिभद्र ने स्पष्ट रूप से यह कहा है कि ध्यान-साधना जनाकीर्ण स्थान की अपेक्षा एकान्त में अधिक सफल होती है। इस बात का समर्थन हमें प्राचीनतम जैन-आगम आचारांगसूत्र से भी मिलता है। उसमें कहा गया है कि धर्मसाधना ग्राम में भी एवं अरण्य में भी हो सकती है और न ग्राम में हो सकती है, न ही अरण्य में हो सकती है।358
सम्मतिवृत्ति में यह उल्लेख भी मिलता है कि प्रशस्त-धर्मध्यान और शुक्लध्यान- ये दोनों उपादेय हैं। प्रस्तुत ध्यान में पर्वत की गुफा, जीर्णशीर्ण उद्यान, श्मशान, घर, जनपद से रहित स्थान जहां कि एकाग्रता में व्यवधान आए- ऐसे निमित्तों से रहित उचित शिला, जहां मन्द-मन्द वायु चलता हो- ऐसे स्थान पर खड़े-खड़े कायोत्सर्ग करते हैं।359
356 विषयेष्वनभिष्वङ्ग कार्य तत्त्वानुचिन्तनम् ।
जगत्स्वभावचिन्तेति वैराग्यस्थैर्यभावनाः।। - ध्यानदीपिका- 2/11. 357 निच्चं चिय जुवइ पसू नपंसग-कसीलवज्जियं जइणो।
ठाणं वियणं भणियं विसेसओ झाणकालंमि।। - ध्यानशतक, गाथा- 35. 358 (क) ग्रामे जनाकीर्ण शून्येऽरण्ये वा न विशेष।। - आचारांग- 1/8/1.
(ख) गामे वा अदुवारण्णे नेव गाम नेव रणे।। - आचाराग- 1/8/1.
359 उपादेयं तु प्रशस्तं धर्म-शुक्ल ध्यानद्वयम् । तत्र पर्वतगुहा जीर्णोद्यान ................ ।।
- सम्मतिवृत्ति, का. 3.
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