Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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श्रावकाचारसंग्रह±3, ध्यानसार 24 सिद्धान्तसारसंग्रह 295, ध्यानस्तव 26 आदि ग्रन्थों में संस्थानविचय धर्मध्यान का वर्णन करते हुए लिखा गया है कि जगत् का तथा जगत् में रहे पदार्थों के स्वरूप का चिन्तन करना संस्थानविचय- धर्मध्यान है। लोक में अनेक द्रव्य हैं और एक-एक द्रव्य की अनन्त - अनन्त पर्याय हैं, उनका परिणमन होता है, इस प्रकार का विचार तथा षट्द्द्रव्यों के स्वरूप आदि का विचार करना संस्थानविचय-धर्मध्यान है।
धर्मध्यान के इन चार प्रकारों में एक विशेषता यह है कि ये व्यक्ति को अन्तर्मुखी बनने की प्रेरणा देते हैं। अलग-अलग विषयों से सम्बद्ध होने के बावजूद भी ये सभी आत्मा से सीधे संलग्न होते हैं । वीतराग देव की वाणी सत्य और तथ्यस्वरूप है। इसका चिन्तन-मनन करते-करते मन में उन तत्त्वों के प्रति स्वतः ही श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है, जिससे कि आत्मा पवित्रता की ओर अग्रसर होती जाती है। श्रद्धाभाव होने पर संसार-पतन के हेतुओं से अपने-आप को दूर रखने के चिन्तन में एकाग्रता सहज ही हो जाती है तथा साधक शुभाशुभ परिणति के लिए विचार-विमर्श करता है, अर्थात् कर्मविपाक पर चिन्तन जाग्रत होते ही लोक के विराट स्वरूप का स्वतः ही भान होने लगता है। धीरे-धीरे उसकी कषायों में मंदता आने लगती है तथा उसे अपने निजस्वरूप का ज्ञान होने लगता है ।
1. षट्द्रव्यों के लक्षण, स्वरूप एवं भेद - प्रभेद, त्रिपदी का स्वरूप, द्रव्य, गुण, पर्याय
289 संस्थानविचयम् प्राहुर्लोकाकारानुचिन्तनम् । – आदिपुराण, पर्व - 21, श्लोक - 148-158. ध्यानकल्पतरू, तृतीय शाखा, चतुर्थ पत्र, पृ. 205.
290
291 आगमसार, पृ. 173.
292
ध्यानविचार सविवेचन, पृ. 25-26.
श्रावकाचार संग्रह, भाग - 5, गाथा - 40-42, पृ. 353. इत्थं त्रिजगतः
295 सिद्धान्तसारसंग्रह, नरेंद्रसेनाचार्य - 11/57-58.
296
जिनाज्ञा- कलुषापाय
त्वयोदितः । -
संस्थानविचय-धर्मध्यान में चिन्तव्य पदार्थ (ध्यानशतक पर आधारित)
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संस्थितिः । । - ध्यानसार, श्लोक - 133-139.
152
ध्यानस्तव, श्लोक - 12.
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