Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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I
तिर्यक्लोक गोल थाली के आकार जैसा और ऊर्ध्वलोक मृदंग के आकार के समान है अधोलोक में नारकी, तिर्यक्लोक में ज्योतिष्क, व्यंतर, मनुष्य तथा तिर्यंच रहते हैं । ऊर्ध्वलोक में विमानवासी देव, किल्विषिक, ग्रैवेयक, अनुत्तरविमान और मोक्षस्थान रहे हुए हैं। इस तरह संस्थान के स्वरूप के चिन्तन में स्थित रहना, एकाग्र रहना संस्थानविचय- धर्मध्यान कहलाता है । 280
पदार्थों के स्वरूप का जो परिज्ञान है, वह ही तत्त्वावबोध है । तत्त्वावबोध से क्रियानुष्ठान और क्रियानुष्ठान से मोक्ष की प्राप्ति होती है ।
संबोधिप्रकरण में कहा गया है कि लोक की आकृति उसमें स्थित पदार्थ और प्रकृति का जो चिन्तन किया जाता है, वह संस्थानविचय कहलाता है । 281
ज्ञानार्णव में भी यही वर्णन है कि अनन्तानन्त आकाश के बीच में लोक स्थित है। उसके स्वरूप का वर्णन अन्तरंग व बहिरंग लक्ष्मी से विभूषित सर्वज्ञ देव द्वारा किया गया है। इस ग्रन्थ के अन्तर्गत समस्त लोक का विस्तार से विवेचन किया गया है। उसका एकाग्र चित्त से चिन्तन करना संस्थानविचय- धर्मध्यान कहलाता है । 282
ध्यानदीपिका में लिखा है- लोक अनन्तानन्त आकाश के मध्य में स्थित है। सर्वज्ञ जिनेश्वर ने अपने केवलज्ञान द्वारा इस लोक की स्थिति का वर्णन किया है। ऐसे लोक के स्वरूप का चिन्तन-मनन, विचार-विमर्श ही संस्थानविचय- धर्मध्यान है 283
अध्यात्मसार के अनुसार उत्पत्ति, स्थिति, विनाश आदि पर्यायरूपी लक्षणों द्वारा तथा नामादि पृथक् भेदों से युक्त लोकसंस्थान का चिन्तन धर्मध्यान का चौथा भेद है । 284 प्रशमरति प्रकरण 285, संवेगरंगशाला 286, योगशास्त्र 287, षट्खण्डागम288 आगमसार21, ध्यानविचार 2..
आदिपुराण 28,
ध्यानकल्पतरू290,
280 संस्थानविचयं नाम चतुर्थ धर्मध्यानमुच्यते - संस्थानम् - आकारविशेषो लोकस्य द्रव्याणां च । लोकस्य तावत् तत्राधोमुखमल्लक संस्थानं . क्रियानुष्ठानं तदनुष्ठानान्मोक्षावाप्तिरिति । । तत्त्वार्थसिद्धवृत्ति, सन्मार्ग प्रकाशक ध्यानशतक से उद्धृत, पृ. 82.
281 सम्बोधिप्रकरण - 12/37.
282 अनन्तानन्तमाकाशं 283 अनंतानंतमाकाशं सर्वतः 284 उत्पादस्थिति
285
.. इति निगदितमुच्चैर्लोकसंस्थान ।
ज्ञानार्णव- 30 / 179.
..जगत्त्रयम्। - ध्यानदीपिका, प्रकरण - 7 श्लोक 128-129.
लक्षणम् । - अध्यात्मसार - 16 / 39-40.
द्रव्यक्षेत्राकृत्यनुगमनं संस्थान विचयस्तु । – प्रशमरतिप्रकरण, श्लोक - 249.
286 संवेगरंगशाला, गाथा - 9633–9664.
287 अनाद्यन्तस्य लोकस्य
288
व्रजेत् । - योगशास्त्र, प्रकाश - 10, श्लोक - 14-15.
षट्खण्डागम, भाग- 5, धवलाटीका, पृ. 72.
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