Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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आकृति (आकार), प्रकार, परिमाण और उत्पाद - व्यय और धौव्य से युक्त द्रव्य, गुण तथा पर्यायरूपी जो आदि-अन्तरहित पुरुषाकार जोक है, उसके स्वरूप का एकाग्रतापूर्ण चिन्तन करना संस्थानविचय- धर्मध्यान है ।
शास्त्रों में पंचास्तिकायरूप लोक को अनादि - अनन्त कहा गया है। वह नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और पर्याय के भेद से आठ प्रकार का है और अधोलोक, तिर्यक्लोक तथा ऊर्ध्वलोक के भेद से तीन प्रकार का है। इस लोक के स्वरूप के सम्बन्ध में विचार करना संस्थानविचय- धर्मध्यान है ।
धर्मध्यानी को पृथ्वी, वायुमण्डल, स्वर्ग और नरक आदि के स्वरूप के सम्बन्ध में विचार करना चाहिए ।
जीव का लक्षण उपयोग है, 276 वह शाश्वत है। शरीर जड़ है, जीव उससे भिन्न एवं अरूपी है। जीव कर्म के अधीन होने के कारण संसार - समुद्र में जन्म-मरण करता है। यह संसार - समुद्र अनादि, अनन्त और अशुभ है। संस्थानविचयरूप - धर्मध्यान में रत जीव को इसका विचार करना चाहिए | 277
स्थानांगसूत्र में धर्मध्यान के चौथे प्रकार का वर्णन करते हुए कहा गया है कि अपने-अपने कर्मों के अनुसार जीव के जन्म-मरण के आधाररूप पुरुषाकार लोक (चौदह राजलोक) के स्वरूप के सम्बन्ध में चिन्तन करते हुए मन को एकाग्र करना संस्थानविचय-धर्मध्यान है | 278
तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है कि लोक के स्वरूप का विचार करने में मन को एकाग्र करना ही संस्थानविचय- धर्मध्यान है | 279
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तत्त्वार्थसिद्धवृत्ति में कहा गया है कि संस्थान अर्थात् लोक और द्रव्यों का आकार। लोक के आकार में अधोलोक का आकार अधोमुख सिकोरे के सदृश है ।
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276 उपयोगो लक्षणं । जिणदेसियाइ लक्खण
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संसार-सागरमणोरपारमसुहंविचिंतेज्जा ।। ध्यानशतक,
गाथा - 52-57.
278 धम्मे झाणे चउव्विहे चउप्पडोयारे पण्णत्ते, तं जहा - आणाविजए, अवायविजए, विवागविजए, संठाणविजए । - स्थानांगसूत्र, चतुर्थ स्थान, उद्देशक- 01, सूत्र - 65, पृ. 223. आज्ञाऽपायविपाकसंस्थानविचयाय धर्ममप्रमत्तसंयतस्य ।
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तत्त्वार्थसूत्र - 9 / 37.
279
तत्त्वार्थसूत्र - 2/8.
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