Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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अध्यात्मसार में लिखा है कि हिंसादि पापों से रागद्वेष-कषाय आदि के दुष्परिणामों के चिन्तन में मन को एकाग्र करना अपायविचय–ध ध्यान है।250
प्रशमरतिप्रकरण, योगशास्त्र'52. ध्यानस्तव'53. ध्यानकल्पतरू254 आगमसार255. ध्यानविचार256, सिद्धान्तसारसंग्रह:57. स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा'58 आदि ग्रन्थों में इसी बात की पुष्टि की गई है कि रागद्वेष, कषाय, विकथा, अहंकार, मिथ्यात्व आदि पापप्रवृत्तियों के द्वारा जीव की इस भव में तो दुर्दशा होती ही है, परन्तु परभव में भी दुर्गति होती है एवं भयानक दुःख भोगने पड़ते हैं, उसका चिन्तन करना अपायविचय-धर्मध्यान है। दूसरे शब्दों में कहें, तो अज्ञान, रागद्वेष, कषाय, आश्रव, मिथ्यात्व आदि मेरे नहीं हैं, मैं उनसे भिन्न हूं, ये सभी बाहर से आई बीमारियां या विकृ तियां हैं, मैं तो अनन्त ज्ञानी, शुद्धबुद्ध अविनाशी हूं, अक्षय, अक्षर, अनक्षर, अचल, अकल, अकर्मा, अकषायी, अलेशी, अयोगी, अशोकी इत्यादि हूं, शुद्ध चिदानन्दमय मेरी आत्मा हैइस प्रकार एकाग्रता से विचार करना अपायविचय-धर्मध्यान है।
3. विपाकविचय - आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने ध्यानशतक में धर्मध्यान का तीसरा प्रकार 'विपाकविचय' बताया है। वे विपाकविचय नामक धर्मध्यान का वर्णन करते हुए कहते हैं- प्रकृति, स्थिति, प्रदेश और अनुभाग-रूप कर्मों के विपाक का चिन्तन-मनन करना विपाकविचय-धर्मध्यान है। यह धर्मध्यान का तीसरा प्रकार है।259 दूसरे शब्दों में, कर्म की जो फल देने की शक्ति है, उसका नाम विपाक है। कर्म प्रकृ तिभेद से, स्थितिभेद से, प्रदेशभेद से तथा अनुभागभेद से नानाविध भेद वाले होकर शुभाशुभ प्रकृतियों में परिणत हो जाते हैं। इनके फलस्वरूप इष्ट-अनिष्ट संयोग मिलता
250 रागद्वेषकषायादि ............विचिन्तयेत् ।। - अध्यात्मसार- 16/37. 251 आसवविकथागौरवपरीषहाद्येष्वापायस्त।। - प्रशमरतिप्रकरण श्लोक- 248
रागद्वेषकषायाद्यैः ................... पापकर्मणः।। - योगशास्त्र, प्रकाश- 10, श्लोक- 10-11.
ध्यानस्तव, श्लोक- 12. 254 ध्यानकल्पतरू (अमोलक ऋषि द्वारा विरचित) तृतीय शाखा, द्वितीय पत्र, पृ. 155. 255 आगमसार, पृ. 172. 256 ध्यानविचार सविवेचन, पृ. 24. 257 सिद्धान्तसारसंग्रह- 11/51-52. 258 स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा, पृ. 367. 259 पयइ-ठिइ-पएसा ऽणुभावभिन्नं सुहासुहविहत्तं।
जोगाणभावजणियं कम्मविवागं विचिंतेज्जा।। - ध्यानशतक गाथा- 51.
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