Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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ध्यानशतक के ग्रन्थकार ने कहा है कि धर्मध्यानी उसे कहना चाहिए, जो गुणीजनों के गुणों का कीर्तन करता है, प्रशंसा करता है, उनका विनय करता है, दान देता है तथा श्रुत, शील और संयम में निरन्तर प्रगति करता हुआ लीन रहता है।12
__ आदिपुराण में कहा है कि यदि ध्यान करने वाला मुनि चौदह पूर्व का जानने वाला हो, या दस पूर्व का जानने वाला हो, अथवा नौ पूर्व का ज्ञाता हो, तो वह ध्याता सम्पूर्ण लक्षणों से युक्त कहलाता है। इसके सिवाय, अल्प-श्रुत ज्ञानी, अतिशय बुद्धिमान् और श्रेणी के पहले-पहले धर्मध्यान धारण करने वाला उत्कृष्ट मुनि भी उत्तम ध्याता कहलाता है।213
ध्यानदीपिका के अन्तर्गत कहा है कि अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय तथा मुनि आदि गुणवान् महापुरुषों को नमन करना, उनकी भक्ति करना, दान देना, शील का पालन करना, यम-नियमों का पालन करना, तपश्चर्या करना, उत्तम भावना से ओतप्रोत इत्यादि कर्तव्यों से युक्त- ये धर्मध्यानी के बाह्य-लक्षण कहलाते हैं।214
धर्मध्यान के चार भेद धर्म से युक्त ध्यान 'धर्मध्यान' कहलाता है। उत्पाद, व्यय एवं ध्रौव्यरूप जो वस्तु का यथार्थ स्वरूप या स्वभाव है, वही धर्म है। दूसरे शब्दों में, वस्तु (पदार्थ) के स्वरूप का जो चिन्तन किया जाता है, वह धर्मध्यान है।215
212 जिणसाहुगुणक्कित्तण-पसंसणा-विणय-दाणसंपण्णो।
सुअ-सीलसंजमरओ धम्मज्झाणी मुणेयव्वो।। - ध्यानशतक, गाथा- 68. 213 स चतुर्दशपूर्वज्ञो दशपूर्वधरोऽपि वा। नव पूर्वधरो वा स्याद् ध्याता सम्पूर्णलक्षणः । श्रुतेन विकलेनापि स्याद् ध्याता मुनिसत्तमः । प्रबुद्ध धीरधः श्रेण्या धर्मध्यानस्यसुश्रुतः।। .
- आदिपुराण, पर्व- 21/101-102. 214 अर्हदादिगुणीशानां नतिं भक्तिं स्तुतिं स्मृतिम्।।
धर्मानुष्ठानदानादि कुर्वन् धर्मीति लिङ्गतः ।। – ध्यानदीपिका, श्लोक- 192. 215 तत्रानपेतं यद् धर्मात्तद् ध्यानं धर्म्यमिष्यते। धर्मोऽहि वस्तु-याथात्म्यमुत्पादादि त्रयात्मकम् ।। – महापुराण, जिनसेनाचार्यकृत, पर्व-21/333.
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