Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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स्थानांगसूत्र में कहा है कि धर्म-कार्यों के करने में सहज ही रुचि उत्पन्न होना 'निसर्ग-रुचि' है, यही धर्मध्यान का द्वितीय लक्षण है।202
अध्यात्मसार में धर्मध्यानी के तीन लक्षण बताए गए हैं, उनमें से प्रथम दो इस प्रकार हैं- प्रथम, आगम-श्रद्धा और द्वितीय, विनयभाव।
धर्मध्यानी स्वेच्छाचारी या अविनीत नहीं होता है। वह स्वभाव से नम्र और विनयसम्पन्न होता है। वह परमात्मा या गुरुजनों के समक्ष विनम्रता के साथ उपस्थित होता है, गुरुजनों की सेवा-शुश्रूषा वैयावच्च के लिए सदैव तत्पर रहता है।203
दूसरे शब्दों में, ज्ञान-दर्शन-चारित्रमय आत्म-परिणाम प्रकट करने की रुचिउत्कण्ठा 'निसर्गरुचि' नामक धर्मध्यान का द्वितीय लक्षण है।204
3. आज्ञारुचि - वीतराग-प्ररूपित धर्ममार्ग ही आज्ञा है और आज्ञा के अनुसार कर्तव्यों के प्रति सजग रहना ही आज्ञारुचि है।
दूसरे शब्दों में, जब सर्वज्ञ-प्ररूपित तत्त्वों में अभिरुचि, विश्वास या भक्ति का प्रादुर्भाव होता है, तब उसके मन में धार्मिक-कर्तव्यों के पालन के प्रति एक सजग रुचि होती है, वह आज्ञारुचि है।205
स्थानांगसूत्र में भी यही कहा है कि आगम, सिद्धान्तों तथा शास्त्रों के पठन-पाठन में रुचि होना “सूत्ररुचि' है। यह धर्मध्यान का तृतीय लक्षण माना गया है।206
अध्यात्मसार में उपाध्यायजी ने धर्मध्यानी के तीन लक्षणों का वर्णन कुछ भिन्न रूप से किया है। उनके अनुसार, तृतीय लक्षण है- सद्गुण-स्तुति। हृदय के उच्च भावों से आनन्द-उल्लास से युक्त जिनेश्वर भगवन्तों के गुणों का कीर्तन करना,207 तात्पर्य यह है कि जिनवचन के उपदेश को श्रवण करने की रुचि करना।208
202 स्थानांगसूत्र, चतुर्थ स्थान, उद्देश्यक- 1, सूत्र- 66, पृ. 224. 200 लिङ्गान्यत्रागमश्रद्धाविनयः सद्गुण स्तुतिः ।। - अध्यात्मसार- 16/71.
ध्यानविचार सविवेचन, पृ. 20. 205 ध्यानशतक, गाथा- 67. 206 स्थानांगसूत्र, चतुर्थ स्थान, प्रथम उद्देश्यक, सूत्र- 66, पृ. 224. 207 लिङ्गान्यत्रागमश्रद्धाविनयः सद्गुणस्तुतिः । - अध्यात्मसार- 16/71. 208 ध्यानविचार सविवेचन, पृ. 20.
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