Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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यहां आज्ञा का अर्थ वीतराग के आदेश का विचार करना अथवा गहन रूप से चिन्तन करना है।
समस्त दोषों से निर्दोष, समस्त अशुद्धियों से शुद्ध और समस्त कषायों से रहित जो वीतरागवाणी है, उसका एकमात्र उद्देश्य राग की निवृत्ति और स्व-स्वरूप में अवस्थिति या धर्मप्राप्ति हो, उसका एकाग्रतापूर्वक चिन्तन-मनन आज्ञाविचय –धर्मध्यान है।219
स्थानांगसूत्र के चतुर्थ स्थान के अन्तर्गत प्रथम उद्देश्य में धर्मध्यान के प्रथम उपप्रकार का वर्णन करते हुए लिखा है कि जिनाज्ञा अर्थात् परमात्मा के प्रवचन के चिन्तन में संलग्न रहना आज्ञाविचय-धर्मध्यान है। इस ध्यान में साधक तत्त्व-स्वरूप के चिन्तन-मनन में या उसके विचार-विमर्श में संलग्न रहता है। 220
तत्त्वार्थसूत्र के प्रणेता उमास्वाति ने धर्मध्यान के प्रथम भेद को स्पष्ट करते हुए कहा है कि सर्वज्ञ पुरुष की आज्ञा में मनोवृत्ति का एकाग्र करना आज्ञाविचय –धर्मध्यान
है। 221
तत्त्वार्थसिद्धवृत्ति में सिद्धसेन दिवाकर ने भी यही कहा है- सर्वज्ञ प्रणीत जो आगम है, वह आज्ञा है। प्रभु की आज्ञा पूर्वापर दोषों से रहित, अतिहितकारी, निर्दोष अर्थवाली, महाप्रभावशाली, द्रव्य, गुण और पर्याय के स्वरूप को बताने वाली होती है।22
नन्दीसूत्र में लिखा है- इच्चेइयं दुवालसंग गणिपिडगं न कयाइ णासी। 223 यह गणिपिटकरूप जिनवाणी अपने अर्थरूप से त्रिकाल में अवस्थित रहती है, परन्तु ग्रन्थरूप वह उत्पन्न और नष्ट होती है।
- ज्ञानार्णव के रचयिता आचार्य शुभचंद्र ने धर्मध्यान के प्रथम भेद 'आज्ञाविचय' का स्वरूप बाईस गाथाओं में वर्णित किया है। वे संक्षेप में यह कहना चाहते हैं कि जिस ध्यान में अपने सिद्धान्त (परमागम) में प्रसिद्ध वस्तुस्वरूप का विचार सर्वज्ञ देव की
219 ध्यानशतक, सं. बालचन्द्रजी शास्त्री एवं कन्हैयालाल, पृ. 24 एवं 89. 220 स्थानांगसूत्र, चतुर्थ स्थान, उद्देश्यक- 1, सूत्र- 65. 221 तत्त्वार्थसूत्र-9/37. 222 सर्वज्ञ प्रणीत आगमः । तामाज्ञामित्थं विचिनुयात्-पर्यालोचयेत्-पूर्वापरविशुद्धमतिनिपुणामशेषजीवकायहितामनवध्यां महार्थी ........स्मृति समन्वाहारः। प्रथमं धर्मध्यानमाज्ञाविचयाख्यम् ।
- तत्त्वार्थसिद्धवृत्ति. 223 नन्दीसूत्र- 58.
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