Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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दुर्गति को प्राप्त करता है। ध्यानशतक में कहा गया है कि रौद्रध्यान निन्दनीय है। रौद्रध्यान स्वयं करना नहीं, करवाना नहीं, साथ ही करने वालों को अच्छा समझना नहीं, क्योंकि यह अश्रेयस्कर तथा अहिकर है। 62
रयणसार में कहा गया है कि जब तक जीव आर्त्त-रौद्रध्यान करता है, तब तक जीव मुक्त नहीं होता और न ही उसे सुख मिलता है। 63
जैसा कि हम पूर्व में निर्देश कर चुके हैं कि जैनधर्म में चार ध्यान माने गए हैं। इन चार ध्यानों में से आर्तध्यान और रौद्रध्यान को संसार–परिभ्रमण एवं कर्मबन्ध का हेतु मानते हुए अशुभ-ध्यान की कोटि में रखे गए हैं। यद्यपि आर्त्त और रौद्रध्यान- दोनों ही अशुभ हैं, फिर भी तीव्रता की अपेक्षा से यदि विचार करें, तो आर्तध्यान की अपेक्षा रौद्रध्यान अधिक अशुभ कहा गया है। आर्तध्यान में व्यक्ति स्वयं दुःखी होता है अथवा अपनी इच्छाओं, अपेक्षाओं, कामनाओं की पूर्ति न होने के कारण स्वयं तनावपूर्ण दशा से ग्रस्त रहता है। उसमें स्वयं के हित साधने का विचार तो होता है, किन्तु दूसरे के अहित-चिन्तन का विचार निश्चयात्मक रूप से कभी होता है और कभी नहीं भी होता है, जबकि रौद्रध्यानी व्यक्ति हमेशा दूसरों के अहित-चिन्तन में ही लगा रहता है। आर्तध्यानी स्वार्थी होता है, जबकि रौद्रध्यानी स्वार्थी होने के साथ ही आक्रामक भी होता है।
__ आर्तध्यानी में लोभ या मान-कषाय की प्रमुखता होती है, जबकि रौद्रध्यानी में क्रोध एवं माया की प्रधानता होती है। स्वामी कुमार ने कहा है कि आर्त्तध्यान मंद -कषाय में भी होता है, किन्तु रौद्रध्यान तो अतितीव्र कषाय में ही होता है।164 आर्त्तध्यानी को भगवद्गीता में आर्त अर्थार्थी कहा गया है, जबकि रौद्रध्यानी को आसुरी-प्रकृति वाला माना गया है। रौद्रध्यानी दूसरों के अहित-चिन्तन में संलग्न रहता है और न केवल वह मानसिक-स्तर पर दूसरों के अहित का चिन्तन करता है, अपितु बाह्यरूप से उस पर आक्रमण भी करता है। आर्तध्यानी की चित्तवृत्ति और प्रवृत्ति मानसिक-आधार
162 इय करण-कारणाणुमइविसयमणुचिंतणं चउड्भेयं ।
अविरय-देसासंजयजणमणसंसवियमहण्णं।। - ध्यानशतक, गाथा- 23. 109 यावच्च अट्टरूदं ताव ण मुञ्चेदि ण हु सोक्खं ।। – रयणसार- 157, पृ. 121. 164 कार्तिकेयानुप्रेक्षा- 470/72-73. 165 भगवद्गीता-7/16. 166 भगवद्गीता- 16/8- 18.
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