Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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पर ही अधिक रहती है, जबकि रौद्रध्यानी की प्रवृत्ति में वाचिक और कायिक-पक्ष भी प्रधान बन जाता है और वह आक्रामक होकर दूसरों की हिंसा भी करता है।
इस प्रकार संक्षिप्त में कहें, तो रौद्रध्यानी अपने छोटे-से स्वार्थ के लिए भी दूसरों का बड़े-से-बड़ा नुकसान अथवा अहित कर सकता है। उसकी वृत्ति हिंसक होती है, साथ ही पर के अहित-चिन्तन और उसे नुकसान पहुंचाने की प्रवृत्ति ही उसमें प्रमुख होती है। ज्ञानियों की दृष्टि में दोनों ध्यान भय के उत्पादक हैं167 तथा उत्तम गति के बाधक हैं168, फिर भी आर्त्तध्यानी की अपेक्षा रौद्रध्यानी अधिक पाप का बन्ध करता है। इसी कारण से यह कहा जाता है कि आर्त्तध्यानी तिर्यंच-गति का बन्ध करता है और रौद्रध्यानी नरक-गति का बन्ध करता है।69
167 (क) मूलाचार- 5/200, पृ. 257.
(ख) भगवती आराधना विजयोदयाटीका- 21 व 70, गाथा- 1693. 168 (क) आसुरी योनिमापन्ना मूढा ...... || - भगवद्गीता- 16/20.
(ख) ध्यानशतक, गाथा. (ग) ध्यानस्तव. (घ) अध्यात्मसार. (ङ) ध्यानविचार. ७ ध्यानशतक, गाथा- 10 एवं 24.
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