Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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ज्ञानार्णव में भी रौद्रध्यानी के लक्षण की चर्चा है- "हिंसा के उपकरणभूत विष-शस्त्रादिक ग्रहण करना, दुष्ट जीवों के विषय में उपकार का भाव रखना तथा निर्दयतापूर्ण व्यवहार, दुष्टता, दण्ड की कठोरता, धूर्तता, कठोरता और स्वभाव में निर्दयता, अग्नि के रंग के समान लाल नेत्र, भृकुटियों की कुटिलता, शरीर की भयानक आकृति, कांपना और पसीना आना इत्यादि रौद्रध्यान के समय प्राणियों के आभ्यन्तर तथा बाह्य-चिह्न होते हैं।
ध्यानसार में भी ज्ञानार्णव के समान ही रौद्रध्यान के अन्तरंग तथा बाह्य-लक्षणों का वर्णन किया गया है।92
ध्यानदीपिका में रौद्रध्यान के लक्षणों का वर्णन करते हुए कहा है कि क्रूरता, हृदय की कठोरता, ठगपना, असह्य दण्ड देना, निर्दयता इत्यादि रौद्रध्यानी की पहचान आचार्यों ने बताई है।
ध्यानशतक की गाथा क्रमांक सत्ताईस के अनुसार- 'रौद्रध्यानी परपीड़ा में प्रसन्न होता है, दूसरों के दुःख का अभिनन्दन करता है, दूसरों को विपत्ति में देख अति प्रफुल्लित होता है। वह निरपेक्ष होता है, दूसरों को विनाश व दुःख से बचाने का प्रयत्न नहीं करता है, निर्दयी होता है, असंवेदनशील होता है और अनुतापरहित होता है। वह हिंसादि पाप करके हर्षित होता है।'
आदिपुराण, ध्यानकल्पतरू, ध्यानविचार-सविवेचन". आदि ग्रन्थों में रौद्रध्यानी के लक्षणों का वर्णन करते हुए कहा गया है कि जिसका चित्त रौद्रध्यान में
क्ररता दण्डपारूष्यं, वंचकत्वं कठोरता। निस्त्रिंशत्वं च लिगानि, रौद्रस्योक्तानिसूरिभिः ।।। विस्फुलिङ्गनिभे नेत्रे, भ्रूवका भीषणाकृतिः । कम्पः स्वेदादिलिङ्गानि, रौद्रे बाह्यानि देहिनाम्।।
- ज्ञानार्णव- 26/13- 35-36. वं वंचकत्वं च ............... बाह्यं रौद्रस्य लक्षणं।। - ध्यानसार, श्लोक- 110-111, पृ. 33. 93 क्रूरता चित्तकाठिन्यं, वंचकत्वं कुदण्डता।
निस्तूंशत्वं च लिङ्गानि, रौद्रस्योक्तानि सूरिभिः ।। – ध्यानदीपिकायाम्, श्लोक- 95. 94 परवसणं अभिनंदइ निरविक्खो निद्दओ निरणुतावो। हरिसिज्जइ कयपावो रोद्दज्झाणोवगयचित्तो।। - ध्यानशतक, गाथा- 27.
95 बाह्यं तु लिङ्गमस्याहुभ्रूभङ्गां मुखविक्रियाम्। __ प्रस्वेदमङ्गकं पंच नेत्रयोश्चातिताम्रताम्।। - आदिपुराण, पर्व- 21, श्लोक- 53. 96 ध्यानकल्पतरू, द्वि. शा., पत्र- 1-4, पृ. 46-52. 97 ध्यानविचार-सविवेचन, पृ. 16.
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