Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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सभी को मार दूंगा। अत्यन्त क्रोधित होकर निर्दयतापूर्वक वध, बन्धन का चिन्तन भी हिंसानुबन्धी- रौद्रध्यान है ।
ध्यानदीपिका के रचयिता उपाध्याय सकलचन्द्रजी ने रौद्रध्यान के प्रथम भेद का उल्लेख करते हुए कहा है कि स्वयं जीवों के समुदाय को पीड़ा देना, कदर्थना करना, क्रोधाग्नि से प्रदीप्त रहना, निरन्तर निर्दयी भावों वाला बने रहना, पापबुद्धि से युक्त, गोत्रदेवी तथा ब्राह्मणादि की पूजा हेतु बकरी वगैरह जीवों का घात करना, जलचर, स्थलचर, खेचर इत्यादि जीवों का गला और नेत्रादि का नाश करना हिंसानुबन्धी नामक प्रथम रौद्रध्यान है। 104
तत्त्वार्थसूत्र''
-106
ध्यानविचार 107
स्वामी
.
111
ध्यानकल्पतरू " कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा सिद्धान्तसारसंग्रह 110 और ध्यानसार ' में लिखा है कि हिंसा करना, जीवों का संहार करना, किसी का बुरा चिन्तन करना, छेदन, भेदन ताड़न, बन्धन, प्रहार, दमन आदि प्रवृत्ति करना, अनाथ, असहाय, निर्बल, पराधीन, निराधार और असमर्थ जीवों को स्वार्थ से अथवा बिना स्वार्थ के दुःख देना, उन्हें दुःखी देख हर्ष मनाना - यह सब हिंसानुबन्धी- रौद्रध्यान है ।
105
104 पीड़िते च तथा ध्वस्ते
105
तत्त्वार्थसूत्र - 9/36.
109
2. मृषानुबन्धी- रौद्रध्यान ध्यानशतक में मृषानुबन्धी- रौद्रध्यान का वर्णन करते हुए ग्रन्थकार कहते हैं कि मायावी, दूसरों को ठगने में निपुण अथवा प्रवर्त्तमान, अपने पापों को छिपाने में तत्पर जीव के पिशनु, अर्थात् अनिष्ट वचन, अथवा असभ्य, असत्य और अभाष्य वचन तथा प्राणघात करने वाले वचनों में रत न होने पर भी उनके प्रति दृढ़ प्रणिधान होना रौद्रध्यान का मृषानुबन्धी नामक द्वितीय प्रकार है । 12
मृषानुबन्धी-रौद्रध्यानी ऐसा विचार करता है- 'मैं अपनी वाकपटुता के द्वारा जनसमुदाय को आकर्षित कर उनके पास से रूपवती कन्या, हीरा, पन्ना, रत्न, धन,
.. भवेत् । - ध्यानदीपिका, श्लोक - 83-86.
109
106 ध्यानकल्पतरू, द्वितीय शाखा, प्रथम पत्र, पृ. 26 – 32.
107 ध्यानविचार' - सविवेचन, पृ. 15.
108 आगमसार, पृ. 169.
112
स्वामी कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा ( स्वामीकुमार), गाथा - 475.
110 सिद्धान्तसारसंग्रह - 11 /42.
111
ध्यानसार, श्लोक - 75-83, पृ. 23-25.
पिसुणा
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123
आगमसार 108,
7
. पच्छन्नपावस्स ।।
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ध्यानतशक, गाथा - 20.
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