Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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9. जिनाज्ञा-भंग - तीर्थकर निर्दिष्ट जो आगमरूप प्रवचन है, उससे विशुद्ध
आचरण का पालन न करना, जिनाज्ञा का भंग करना ।
उपर्युक्त लक्षणों से युक्त आर्त्तध्यानी सामान्यतया हर बात में शंका करता है । आर्त्तध्यानी शोक, भय, प्रमाद, असावधानी, क्लेश, चिन्ता, भ्रम, भ्रान्ति, विषय - सेवन की उत्कण्ठा, हर्ष विषाद करना, अंग में जड़ता - शिथिलता, चित्त में खेद वस्तु में आसक्ति आदि से युक्त रहता है। यह आर्त्तध्यान अनादिकाल से सांसारिक - जीवात्माओं उत्पन्न होता रहता है। यह प्रारंभ में तो अच्छा लगता है, परन्तु इसके परिणाम दुःखदायी
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होते हैं
उपाध्याय यशोविजयजी कृत अध्यात्मसार के अन्तर्गत भी इसी प्रकार के चिह्नों का वर्णन है। क्रन्दन, रुदन, शोचन, ताड़न, स्वयं के निष्फल कार्य की निन्दा, सम्पत्ति की प्राप्ति हेतु प्रार्थना, प्राप्त हुई सम्पत्ति पर आसक्ति - प्रमत्तता, इन्द्रियों के विषयों की लोलुपता, धर्म से विमुखता, जिनवचन की उपेक्षा आदि लक्षण आर्त्तध्यान में पाए जाते
हैं। 13
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आवश्यकचूर्णि में आर्त्तध्यान के निम्न लक्षण बताए गए हैं
कंदणता, सोयणता, तिप्पणता तथा इन्द्रिय, गारव, संज्ञा अतिरति, भय और शोकादि । 14 ध्यानदीपिका' नामक ग्रन्थ में आर्त्तध्यानी के चिह्नों (लक्षण) का परिचय दिया गया है। श्लोक - संख्या अस्सी के अन्तर्गत कहा है कि आर्त्तध्यानी दो प्रकार के लक्षणों से युक्त होते हैं- 1. आन्तरिक - लक्षण 2. बाह्य लक्षण |
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क्रन्दनं रूदनं प्रोच्चैः, शोचनं परिदेवनम् । ताडनं लुञ्चनं चेति लिङ्गान्यस्य विदुर्बुधाः ।। 7 ।। मोघं निन्दं निजं कृत्यं प्रशंसं परसम्पदः । विस्मितः प्रार्थयन्नेताः प्रसक्तश्चैतदर्जने ।। 8 ।। प्रमत्तश्चेन्द्रयार्थेषु गृद्धो धर्मपराङ्मुखः । जिनोक्तमपुरस्कुर्वन्नार्त्तध्याने प्रवर्त्तते ।। 9 ।।
अट्टस्स लक्खणाणि - कंदणता, सोयणता, तिप्पणता, परिदेवणता
इंदियगारवसंण्णा उस्सेय रती भयं च सोगं च । ऐ तु समाहारा भवंति अट्टस्स झाणस्स ।
आवश्यकचूर्ण.
शोकाक्रंदौ मूर्च्छा मस्तकहृदयादिताडनं चिन्ता | आर्त्तगतस्य नरस्य हि लिंगान्येतानि बाह्यानि ।।
अध्यात्मसार, अधिकार 16.
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ध्यानदीपिका, श्लोक 80.
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