Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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आर्तध्यान है। उसी ग्रन्थ में आर्त्तध्यान के भेदों पर प्रकाश डालते हुए उसे तिर्यच-गति का कारण बताया है।
__आचार्य कुन्दकुन्द आर्त और रौद्रध्यान के परित्याग का उपदेश देते हुए तथा साधकों को सजग करते हुए कहते हैं- जो साधक आत्मा आर्त और रौद्रध्यान का वर्जन अथवा अशुभ अध्यवसायों का त्याग करता है, उसमें सामायिक-रूप या समतारूपी आत्मभाव स्थिर हो जाते हैं- ऐसा केवलीप्रभु के शासन में माना गया है।
आचार्य महाप्रज्ञ ने भी आर्तध्यान की परिभाषा की पुष्टि अपनी पुस्तक 'संस्कृति के दो प्रवाह' में की है।10
आर्त्तध्यान के लक्षण – जब किसी व्यक्ति में निम्नांकित लक्षण दिखाई दें, तब यह समझ लेना चाहिए कि वह व्यक्ति आर्त्तध्यान की स्थिति में है। आर्तध्यान में होने वाली क्रियाएं, यथा- क्रन्दन, रुदन आदि। ये सभी क्रियाएं कर्मबन्ध का कारण हैं।
'स्थानांगसूत्रं' के अनुसार, आर्त्तध्यान के लक्षण इस प्रकार हैं1. क्रन्दनता – ऊंची-ऊंची आवाज करके रुदन करना। ऐसी स्थिति तब उत्पन्न होती है, जब किसी प्रियतम का वियोग होता है। 2. शोचनता - दीनता का प्रदर्शन करते हुए शोक करना। 3. तेपनता - दीनता के समय नेत्रों से अश्रु बहाना। 4. परिदेवनता – करुणाजनक शब्दों में विलाप करना।
ध्यानशतक के कर्ता जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण आर्तध्यानी के लक्षण बताते हुए कहते हैं- जिसका आर्तध्यान अत्यन्त तीव्र बन जाता है, उस मनुष्य द्वारा अनायास ही कुछ चेष्टाएं हो जाती हैं। दूसरे शब्दों में, जब व्यक्ति के जीवन में इष्ट वस्तुओं का वियोग,
8 प्रिययोगा-ऽप्रियायोग-पीडा-लक्ष्मीविचिन्तनम्।
आर्त चतुर्विधं ज्ञेयं तिर्यग्गतिनिबन्धनम्।। - अमितगति श्रावकचारे, परि. 15. नियमसार, गाथा 129, पृ. 260. 10 संस्कृति के दो प्रवाह, पृ. 222. " (क) अट्टस्सणं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णता, तं जहा-कंदणता, सोयणता. तिप्पणता. पडिदेवणतां।
___ - स्थानांगसूत्र, चतु. स्था. उद्देश्यक 1, सूत्र 62, पृ. 222. (ख) औपपातिकसूत्र – 20. (ग) भगवतीसूत्र - 803.
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