Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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ज्ञानार्णव के अन्तर्गत कहा गया है कि मनोहर वस्तुओं का विनाश होने पर उनके पुनः संयोग की इच्छा से जो प्राणी संक्लेश-भाव को प्राप्त होता है, वही आर्तध्यान का तीसरा प्रकार है।
__ आदिपुराण में कहा है कि किसी इष्टवस्तु के वियोग होने पर उसके संयोग के लिए निरन्तर चिन्तन करना तीसरे प्रकार का आर्तध्यान है।
अध्यात्मसार में भी यही लिखा है कि सुख के तीव्रराग के कारण मनुष्य को इस प्रकार का, अथवा इष्ट के संयोग होने की या उनका वियोग न हो- ऐसी चिन्ता बनी रहती है,48 यह स्थिति भौतिक-पदार्थों के इच्छुक जीवों की होती है। वे अपने इष्टसुख की मृग-मरीचिका के पीछे निरन्तर दौड़ते रहते हैं और एक क्षण के लिए भी उस कल्पित सुख के भार को उतारकर निर्विकल्प स्थितिरूप विश्रान्ति के सुख का उपभोग नहीं करते हैं और अन्त में इष्टवस्तु की प्राप्ति के लिए आर्त्तध्यान करते-करते मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं।
ध्यानस्तव में भी आर्तध्यान के तीसरे प्रकार का वर्णन उपर्युक्त व्याख्या के समान
ध्यानसार में श्लोक क्रमांक इक्यावन से उनसाठ तक आर्तध्यान के तीसरे प्रकार का वर्णन किया गया है।
4. निदान-चिन्तन-आर्त्तध्यान – जिनभद्रगणि ने ध्यानशतक में आर्तध्यान के चौथे निदान-चिन्तन का वर्णन करते हुए लिखा है कि अनागत भोगों की आकांक्षा का नाम निदान है। देवेन्द्र और चक्रवर्ती आदि के मुख तथा ऋषि की प्रार्थना या याचना करना निदान है। इसका चिन्तन करना अधम है और यह अत्यन्त अज्ञान से उत्पन्न होता है।52
48 मनोज्ञवस्तु विध्वंसे, पुनस्तत्संङ्गमार्थिभिः। - ज्ञानार्णव, श्लोक- 1210. 47 आदिपुराण, पर्व-21/35.
इष्टानां प्रणिधानं च संप्रयोगावियोगयोः। - अध्यात्मसार-36/5. 49 राज्योपभोग शयनासन वाहनेषु, स्त्रीगंध माल्य वररत्न विभूषणेषु । अत्याभिलाष मतिमात्र मुपैति मोहाद्, यानं तदातमिति तत्प्रवदन्ति तज्ज्ञाः ।। – सागर धर्माऽमृत.
- प्रस्तुत सन्दर्भ ध्यानकल्पतरू ग्रन्थ से उद्धृत है. पृ. 12. 5 ध्यानस्तव, श्लोक-9. 51 वातपित्तकफोद्रेकाद्रस .......... दुःक्खं करिष्यति ।। – ध्यानसार, श्लोक- 51-59, पृ. 15-16. 52 देविंद-चक्कवट्टित्तणाइगुण-रिद्धिपत्थणामईयं ।
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