Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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स्थानांगसूत्र में आर्त्तध्यान की परिभाषा करते हुए कहा गया है कि मानसिक दुःख को उत्पन्न करने वाला ध्यान आर्त्तध्यान कहलाता है। दूसरे शब्दों में चिन्तायुक्त मन की एकाग्रता आर्त्तध्यान है । दुःख के निमित्त से उत्पन्न क्लिष्ट अध्यवसाय या रागद्वेष से युक्त संक्लेश वाले मनोभाव और उन भावों से उत्पन्न ध्यान आर्त्तध्यान है । उदाहरण के तौर पर कहा जा सकता है- जैसे ही मैले से युक्त कपड़े पर नजर पड़ती है, तो मन में यह चिन्ता उत्पन्न होती है कि किस तरह मैल दूर हो ? मैल पर द्वेष सहित संक्लेशयुक्त अध्यवसाय आर्त्तध्यान को जन्म देता है, दूसरी ओर, यदि कपड़ा साफ-सुथरा अथवा चमकदार है, तो मन में यह विकल्प होता है कि किसी तरह इसकी सफेदी या चमक कायम रहे, यह खराब न हो । सफेदी पर राग के संक्लेशयुक्त अध्यवसाय भी आर्त्तध्यान हैं। दूसरे शब्दों में, मैल के प्रति द्वेषजन्य चिन्ता और सफेदी के प्रति रागजन्य चिन्ता- दोनों ही आर्त्तध्यान हैं ।
दशवैकालिक हारिभद्रीयवृत्ति के अन्तर्गत आर्त्तध्यान के स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा गया है- राज्य, उपभोग, शयन, आसन, वाहन, स्त्रीसंघ, माला, मणिरत्न और आभूषण (पर पदार्थों वगैरह ) में मोह के उदय से जो तीव्र अभिलाषा प्रकट होती है, उसे धीर - गम्भीर महापुरुष आर्त्तध्यान कहते हैं । '
संवेगरंगशाला नामक ग्रन्थ में आर्त्तध्यान को दुःख का महाभण्डार एवं विषयों के प्रति अनुराग वाला कहा गया है । "
ध्यानदीपिका के रचयिता उपाध्याय सकलचन्द्रजी ने लिखा है कि रागद्वेष की परिणति के द्वारा जिस जीव को दुःख उत्पन्न होता है, ये दुःख उत्पन्न करने वाले विचार ही आर्त्तध्यान हैं ।'
श्रावकाचार (अमितगति) में आर्त्तध्यान का विवेचन इस प्रकार है- प्रिय का संयोग, अप्रिय का वियोग, शारीरिक - वेदना और लक्ष्मी की चिन्तास्वरूप जो ध्यान होता है, वह
राज्योपभोगशयनासनवाहनेषु स्त्रीगन्धमाल्यमणिरत्नविभूषणेषु ।
इच्छाभिलाष्मतिमात्रमुपैति मोहाद ध्यानं तदार्त्तमिति तत्प्रवदन्ति तज्ज्ञाः ।। 1।। दशवैकालिक, हारिभद्रीयवृत्तौ, अ. 1.
• संवेगरंगशाला ग्रन्थ से उद्धृत, सं. मुनिराज श्री जयानंदविजय, पृ. 399.
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ध्यानदीपिका, प्रकरण 5, श्लोक 69 का भावार्थ, पृ. 85.
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