Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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सूत्रार्थ का पर्यालोचन करना, दृढ़ता से व्रत पालना, शीलगुणानुराग, काया तथा वचन-व्यापार का शास्त्रानुकूल प्रवर्तन करना आदि- वह बाह्य-धर्मध्यान कहलाता है तथा स्वसंवेदन करना या अन्तर्दर्शन करना और कषायों को क्षीण करना- इसे आध्यात्मिक-धर्मध्यान कहा गया है।
यहां. एक बात ध्यान रखने योग्य है कि धर्मध्यान शुभ का ध्यान है, अतः वह साधनरूप है, किन्तु साध्य की सिद्धि साधन के बिना असम्भव है, अतः साधनरूप धर्मध्यान भी आवश्यक है। धर्मध्यान में विकल्प रहते हैं, किन्तु वे विकल्प शुभ होते हैं। अशुभ के निरसन हेतु शुभ का सहारा लेना जरूरी है, क्योंकि बुरे विचारों को हटाने के लिए अच्छे विचारों को स्थान तो देना ही होगा। इसी अर्थ में साधना के क्षेत्र में धर्मध्यान का स्थान एवं महत्त्व है।
धर्मध्यान अशुभ का निवारण कर शुभ की ओर ले जाता है और फिर इससे साधक शुद्ध की ओर प्रयाण कर सकता है। साधना की दृष्टि से साधन को ग्रहण करना होता है, किन्तु साधन साध्य नहीं है। जैसे किसी व्यक्ति को नदी पार करना है, तो नौका का सहारा लेना पड़ता है, लेकिन अन्त में तो उस नौका को भी छोड़ना पड़ता है, वैसे ही साधना के क्षेत्र में धर्मध्यान नौका के समान है। वह ग्राह्य तो है, लेकिन शुक्लध्यान में प्रवेश करने के लिए उसे, अर्थात् विकल्पात्मक शुभभावों को छोड़ना भी होता है, क्योंकि साधन का अतिक्रमण किए बिना साध्य की सिद्धि नहीं होती है। दूसरे शब्दों में, विकल्प का त्याग किए बिना निर्विकल्पता सम्भव नहीं है। शुक्लध्यान साध्य है, क्योंकि वह निर्विकल्प है।
जैन-दर्शन में शुक्लध्यान के चार चरण माने गए हैं।117 उनमें प्रथम दो चरणों में विकल्प रहते हैं और अन्तिम दो चरणों में विकल्प समाप्त हो जाते हैं। शुक्लध्यान की प्रथम दो अवस्थाएं वस्तुतः धर्मध्यान से शुक्लध्यान की ओर जाने के लिए सेतु का काम करती हैं।
जिस प्रकार सेतु दोनों किनारों से जुड़ा रहता है, उसी प्रकार शुक्लध्यान के प्रथम दो चरण धर्मध्यान से जुड़े हुए हैं। दूसरे शब्दों में कहें, तो वे धर्मध्यान से
117 (क) सुक्के झाणे चउव्विहे चउप्पडोआरे पण्णते तं जहा-पुहुतवितक्के सवियारी। एगत्तवितक्के अवियारी, सुहमकिरिए अणियट्टी, समुच्छिण्णकिरिए अपडिवाती।।
- स्थानांगसूत्र, चतुर्थ स्थान, उद्देशक- 1, सूत्र 69, पृ. 225. (ख) पृथक्त्वैकत्ववितर्कसूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति व्युपरतक्रियानिवृत्तीनि। - तत्त्वार्थसूत्र- 9/41.
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