Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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1. अनिष्ट शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्शादि पर-पदार्थों के वियोग की चिन्ता, अथवा भावीकाल में इनका संयोग न होने की चिन्ता- यह अनिष्ट संयोग नामक प्रथम भेद वाला आर्त्तध्यान है। 2. शूल, सिरदर्द आदि वेदना के वियोग की चिन्ता, अथवा भावीकाल में वेदना प्राप्त न हो- ऐसी चिन्ता 'वेदना' नामक द्वितीय भेद वाला आर्त्तध्यान है। 3. इष्ट शब्दादि विषयों की तथा साता-वेदनीय का वियोग न हो और उसका संयोग बना रहे- ऐसी चिन्ता 'इष्टसंयोग' नामक तृतीय भेद वाला आर्तध्यान है। 4. देवेन्द्र, चक्रवर्ती आदि के सुखों की अभिलाषा- यह 'निदान' नामक चतुर्थ भेद वाला . आर्त्तध्यान है।
दूसरों को जो रूलाना है- वह रौद्रध्यान है। यानी, प्राणियों की हिंसा आदि परिणामों से परिणत आत्मा रौद्री कहलाती है, ऐसी आत्मा की क्रिया, अथवा व्यापार- वह रौद्रध्यान है। इस प्रकार ध्यान के भी चार भेद हैं1. प्राणियों का वध करना, छेदन-भेदन करना, जकड़कर बांधना, जलाना, अंग-अंकन इत्यादि चित्त का प्रणिधान- वह रौद्रध्यान का पहला भेद है। 2. चुगली करना, असभ्य वचन बोलना, चोरी वगैरह का आरोप लगाना, जिन वचनों से प्राण का घात होता है- ऐसे वचन बोलना, इत्यादि चित्त का प्रणिधान- वह रौद्रध्यान का दूसरा भेद है। 3. अत्यन्त क्रोध तथा लोभ से युक्त होकर प्राणियों का नाश करने में तत्पर, परलोक के दुःखों से निरपेक्ष, परद्रव्य-हरण के चित्त का प्रणिधान- वह रौद्रध्यान का तीसरा भेद है। 4. शंका-आशंका से युक्त (धन-हरण विषयक चिन्ता) परम्परा से नुकसान करने में तत्पर, ऐसा शब्दादि विषयों का साधनभूत (पैसे वगैरह) धन का संरक्षण करने में चित्त का प्रणिधान- वह रौद्रध्यान का चौथा भेद है।
क्षमादि दस यतिधर्मों से युक्त जो ध्यान है, वह धर्मध्यान है। प्रस्तुत ध्यान के चार भेद हैं1. सर्वज्ञ प्रभु की आज्ञा का चिन्तन । 2. राग, द्वेष, कषाय और इन्द्रियों के पराधीन आत्माओं के दुःखों की विचारणा।
नवतत्त्व-प्रकरण, गाथा- 36.
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