Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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हिंसा से अनुरंजित (रंगा हुआ) ध्यान रौद्रध्यान और कामनाओं से अनुरंजित ध्यान आर्तध्यान कहलाता है। धर्म से अनुरंजित ध्यान धर्मध्यान है और शुक्लध्यान पूर्ण निरंजनस्वरूप होता है।91
तत्त्वार्थसिद्धवृत्ति में ध्यान के सामान्य लक्षणों की चर्चा करने के पश्चात् ध्यान के जिन चार प्रकारों का वर्णन है, वे इस प्रकार हैं1. आर्तध्यान 2. रौद्रध्यान 3. धर्मध्यान और 4. शुक्लध्यान ।
संक्षेप में, ध्यान के चारों प्रकारों को अलग-अलग रूप में इस प्रकार से परिभाषित किया गया है1. आर्तध्यान - दुःख को प्रकट करने वाला एवं दुःख की परम्परा को चलाने वाला जो ध्यान है, वह आर्तध्यान है।
अनिष्ट विषयों की प्राप्ति दुःखरूप है। आंख, नाक, कान वगैरह की वेदना दुःखरूप है। इष्ट-विषयों का वियोग भी दुःखरूप है तथा मन की अशुभ अवस्था से निदान होता है, अतः निदान भी दुःखरूप है। 2. रौद्रध्यान - दूसरों को रुलाना रौद्रध्यान है। दूसरे शब्दों में, जो दुःख का हेतु है, उस हेतु से जो की जाने वाली प्रक्रिया है , वह रौद्रध्यान है, जैसे- प्राणी को प्राण का वियोग करना और बन्धन में रखना, उस परिणति वाली आत्मा रौद्रध्यानी कहलाती है। 3. धर्मध्यान - क्षमा वगैरह जो दस प्रकार के यतिधर्म हैं, उन यतिधर्मों से युक्त जो ध्यान है, वह धर्मध्यान है। 4. शुक्लध्यान - शुचि यानी निर्मल। समस्त कर्मों का क्षय हो जाने से यह ध्यान निर्मल कहलाता है। शुच, यानी दुःख या अष्ट प्रकार के कर्मों को दूर करने वाला ध्यान शुक्लध्यान है।
प्रवचन-सारोद्धार की वृत्ति में भी ध्यान के चार प्रकारों का वर्णन है। दुःख-विषयक चित्तधारा आर्तध्यान है। यह आर्त्तध्यान चार भेदों वाला है।
81 आवश्यकचूर्णि, जिनदासगणि महत्तर, प्रस्तुत संदर्भ ध्यानशतक (सन्मार्ग प्रकाशन) से उद्धृत,
पृ. 17. ४ आर्त्त-रौद्र-धर्म्य-शुक्लानि – तत्त्वार्थसिद्धवृत्तौ, गाथा 29.
पायच्छितं विणओ वेयावच्चं तहेव सज्झाओ। झाणं उस्सग्गोऽवि च अभिंतरओ तवो होइ।। - प्रवचनसारोद्धार, गाथा 271. और
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