Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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ध्यानशतक में ध्यान के चार प्रकार - जैनागमों को तीर्थकर-प्रणीत माना जाता है। ये आगम ही शास्त्र तथा सूत्र इत्यादि के नामों से जाने जाते हैं। तीर्थकरों द्वारा भाषित यह ज्ञान अर्थरूप अर्थात् विचाररूप होता है। वे मात्र उपदेश देते थे। प्रज्ञावान् गणधर भगवन्तों द्वारा इसको सुव्यवस्थित कर ग्रन्थबद्ध या सूत्रबद्ध किया जाता था। ये ग्रन्थ ही आज आगम के नाम से प्रचलित हैं।
जिन ग्रन्थों को आज हम आगम के नाम से जानते हैं, वे ही प्राचीनकाल में 'गणिपिटक' के नाम से भी जाने जाते थे। गणिपिटक में समस्त द्वादशांगी समाहित हो जाती है। इस द्वादशांगी के कर्ता गणधर माने जाते हैं। वे तीर्थकरों के वचनों के आधार पर ही ग्रन्थों की रचना करते हैं। इन्हीं अंग-आगमों के आधार पर ही परवर्ती आचार्यों ने उपांग, मूल, छेद इत्यादि अनेक प्रकार के ग्रन्थों की रचना की है।
ध्यानशतक के लेखक भाष्यकार जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने ध्यानशतक के अन्तर्गत चार ध्यानों का बहुत ही मार्मिक, सरल तथा सविस्तार वर्णन किया है, किन्तु उसका आधार आगम और विशेष रूप से स्थानांगसूत्र है। जैसा पूर्व में कहा जा चुका है कि अध्यवसायों की स्थिरता या मन के द्वारा किसी एक विषय का आलम्बन लेकर उस पर चित्तवृत्ति को केंद्रित करने को ध्यान कहते हैं। दूसरे शब्दों में, मन, वचन और काया की चंचलता की समाप्ति ही ध्यान है।
सामान्य तौर पर ध्यान के चार प्रकार हैं- 1. आर्त्तध्यान 2. रौद्रध्यान धर्मध्यान तथा 4. शुक्लध्यान।
प्रथम तथा द्वितीय- ये दो ध्यान अप्रशस्त तथा शेष दो ध्यान प्रशस्त माने गए
हैं।
72 नंदीसूत्र, गाथा 40. 7 प्रमाणनयतत्त्वालोक- 4/1.
अटुं रूद्धं धम्म सुक्कं झाणाइ तत्थ अंताई। निव्वाणसाहणाइं भवकारणमट्ठ-रूद्धाइं।। - ध्यानशतक, गाथा 5. 75 (क) चत्तारिझाणा पण्णत्ता, तं जहा–अट्टेझाणे, रोद्देझाणे, धम्मेझाणे, सुक्केझाणे – स्थानांग, स्थान .
चतुर्थ, उद्देशक 1, सूत्र- 60, पृ 222. (ख) आवश्यकनियुक्ति, गाथा 1495. (ग) भगवतीसूत्र, शतक- 25, उद्देशक 7, 509-513. (घ) समवायांगसूत्र, समवाय 32, पृ. 93. (ङ) आवश्यकचूर्णि, प्रतिक्रमणाध्याय, जिनदासगणि महत्तर, पृ. 50. (च) औपपातिकसूत्र- 30, पृ. 49-50. (छ) सूत्रकृतांगसूत्र- 1/8/26.
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