Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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कहलाता है) तक ही स्थिर रहता है । छद्मस्थों का ध्यान अन्तर्मुहूर्त और जिनेश्वरों का ध्यान सम्पूर्ण कर्मसमूह के नाशरूप त्रिविध योगों के निरोधरूप होता है। 68
आचार्य हेमचंद्र द्वारा विरचित योगशास्त्र में भी इसी बात की पुष्टि की गई है। एक आलम्बन में अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त मन की स्थिरता - यह छद्मस्थ योगियों का ध्यान है । वह ध्यान धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान, अर्थात् दोनों प्रकार का हो सकता है। अयोगी (चौदहवें गुणस्थानवर्ती जीवों) का ध्यान तो योग का निरोधरूप ही होता है। 9
योगशास्त्र की स्वोपज्ञ व्याख्या एवं उसके हिन्दी अनुवाद में उसके अनुवादकर्ता मुनिश्री पद्मविजयजी ने कहा है- "वह धर्मध्यान दस प्रकार के धर्मों से युक्त, अथवा दशविध धर्मों से प्राप्त करने योग्य है और शुक्लध्यान समस्त कर्ममल को क्षय करने वाला होने से शुक्ल, उज्ज्वल, पवित्र और निर्मल है।
कहा गया है शुचं दुःखं क्लमयति नश्यतीति शुक्लम्, अर्थात् शुच् यानी दुःख के कारणभूत आठ प्रकार के कर्मों का जो नाश करता है, वह शुक्लध्यान है। सयोगकेवली को तो मन, वचन और काया के योग का निरोध करना या निग्रह करना होता है । सयोगकेवली को योग के निरोध के समय ही ध्यान होता है, इसके अतिरिक्त ध्यान नहीं होता । सयोगीकेवली कुछ कम पूर्वकोटि तक मन, वचन और काया योग (व्यापार) युक्त ही विचरण करते हैं, उस समय उन्हें ध्यान की आवश्यकता ही नहीं रहती है, क्योंकि वे निर्विकल्प - दशा में ही रहते हैं। वे केवल निर्वाण के समय में योग का निरोध करते हैं। 70
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ध्यानशतक के 'जोग निरोहो जिणाणं तु' नामक पद का स्पष्टीकरण विशेषावश्यकभाष्य में बहुत ही सुन्दर रूप से किया गया है, यथा- शरीर के संयोग से
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इह द्वये ध्यातारः सयोगा अयोगिनश्च । सयोगा अपि द्विविधाः - छद्मस्थाः केवलिनश्च । तत्र छद्मस्थयोगिनाम् ध्यानस्य लक्षणमेतद् यदुतान्तर्मुहूर्त कालमेकस्मिन्नालम्बने चेतसः स्थितिः तच्च छद्मस्थयोगिनाम् ध्यानम् द्वेधा-धर्म्यं शुक्लं च । तत्र धर्माद् दशविधानपेतम् धर्मेण प्राप्यं वा धर्म्यम् । शुक्लं शुचि निर्मलं सकलकर्ममलक्षयहेतुत्वात् । यद्वा शुग् दुःखं तत्कारणम् वाऽष्टविधं कर्म, शुचं क्लमयतीति शुक्लम् । अयोगिनां तु अयोगि केवलिनां ध्यान योगनिरोधः योगानां मनोवाक्कायानां निरोधो निग्रहः । सयोगिकेवलिनां तु योगनिरोधकाल एवं ध्यानसम्भव इति पृथग् नोक्तम्, ते हि देशोनपूर्वकोटीं यावन्मनोवाक्कायव्यापारयुक्ता एव विहरन्ति । अपवर्गकाले तु योगनिरोध कुर्वन्तीति।। 115 ।। - योगशास्त्रे - 4/115.
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