Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
View full book text
________________
___79
विभिन्न चेष्टाएं हैं, वही चिन्ता है। इस प्रकार उन्होंने मूल गाथा में वर्णित भावना, अनुप्रेक्षा और चिन्ता- तीनों को अलग-अलग करकं, समझाया है।
संक्षिप्त में कहा जाए, तो जहां भावना ध्यान के अभ्यास की स्थिति है, वहीं अनुप्रेक्षा ध्यान की निवृत्ति के पश्चात् होने वाली उसकी स्मृति है। इस प्रकार हरिभद्र की दृष्टि में, भावना और अनुप्रेक्षा- दोनों किसी दृष्टि से ध्यान के साथ जुड़ी हुई हैं, किन्तु चित्त की विभिन्न चेष्टाओं को चिन्ता कहकर आचार्य हरिभद्र ने उसे ध्यान के विपरीत स्थिति माना है और यह कहा है कि चिन्ता पूर्वोक्त दोनों प्रकारों से भिन्न है, वह वस्तुतः चित्त की सक्रियता या चंचलता है।
छद्मस्थ और जिनेश्वर के ध्यान का वर्णन - छद्मस्थ अथवा सांसारिक-प्राणियों का एक विषय पर मन ज्यादा-से-ज्यादा अन्तर्मुहूर्त्तकाल - (दो घड़ी के अंदर) तक स्थिर हो सकता है। उनमें योग, अर्थात् मन, वचन और काया की प्रवृत्ति को पूर्णतः रोकने की शक्ति नहीं होती है, जबकि केवलज्ञानियों (अयोगी-अवस्था) में मानसिक, वाचिक और कायिक-योगों की प्रवृत्ति का निरोध करने की पूर्ण क्षमता होती है, अतः वे योगनिरोधरूप ध्यान करते हैं। सामान्य व्यक्ति की चित्तवृत्ति का बहुत से ध्येयों या विषयों में बार-बार संक्रमित होने से उनके ध्यान का क्रम टूटता रहता है। उनके लिए 48 मिनट (47 मिनट से अधिक) चित्तवृत्ति की स्थिरता सम्भव नहीं होती है, अतः वह सीमित काल का ध्यान छद्मस्थों का ध्यान कहलाता है। जिनेश्वरों का ध्यान (सयोगी गुणस्थान वाले) तो सम्पूर्ण, अर्थात् सूक्ष्मयोग निरोधरूप होता है, अतः यावत् जीवन होता है। अयोगी केवली शैलेशीकरण की अवस्था को प्राप्त होते हैं।
___ अध्यात्मसार के सोलहवें 'ध्यानाधिकार' के अन्तर्गत उपाध्याय यशोविजयजी ने भी यही कहा है कि छद्मस्थ व्यक्ति अधिक-से-अधिक किसी एक पदार्थ पर अपने ध्यान को अन्तर्मुहूर्त्तकाल (48 मिनिट के अन्दर की अवधि) तक ही स्थिर कर सकता
65 (क) अंतोमुत्तमेत्तं चित्तावत्थाणमेगवत्थुमि ।
छउमत्थाणं झाणं जोगनिरोहो जिणाणं तु ।। अन्तोमुहुत्तपरओ चिंताझाणंतरं व होज्जाहि।
सुचिरंपि होज्ज बहुवत्थुसंकमे झाणसंताणो।। - ध्यानशतक, गाथा- 3/4. (ख) भगवतीसूत्र- 25/6, गाथा 770. (ग) योगशास्त्र- 4/155.
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org