Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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ये तीनों ध्यान की प्राथमिक अवस्था के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं, क्योंकि ये भीतर की अशुभ परिणति को रोकने में समर्थ हैं तथा ध्यान के अभ्यास में सहायकभूत हैं। यथार्थ रूप से भिन्न-भिन्न प्रकार की प्रेक्षा (श्वासप्रेक्षा आदि) को ही ध्यान मान लेना तो हमारी भूल है। ध्यान के विकास - क्रम में अनुप्रेक्षा और भावना (यदि शुभ अध्यवसाय में स्थिर स्वरूप हो, तो ) सहायकभूत भले ही हो सकती हैं, पर चित्त की चंचलवृत्ति रूप होने से उन्हें ध्यान नहीं माना जा सकता है। जिस प्रकार शरीर की स्वस्थता, मन की स्वस्थता को लक्ष्य में रखकर जो योगासन, प्राणायाम किए जाते हैं, वे योग-साधना नहीं हैं, उसी प्रकार, ग्रन्थकार जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने ध्यानशतक में चिन्तन या मनन को ध्यान नहीं माना है।
महर्षि पतंजलि में चित्त की एकाग्रता या चित्तवृत्ति के निरोध को योग कहा गया है, अर्थात् मन को स्थिर बना देना ही ध्यान है ।" इसे ज्ञाता - द्रष्टाभाव की स्वरूप स्थिति भी माना गया है। यह योग चित्त की शुद्ध वृत्तियों के स्वरूप का प्रकटीकरण कराने वाला होने से श्रेष्ठ योग है ।
ध्यानशतक के अन्तर्गत स्थिर अध्यवसायों को ध्यान कहा गया है, चाहे वे शुभ हों अथवा अशुभ, इसीलिए तो जैनों ने आर्त्त और रौद्र-ध्यान को भी ध्यान कहा है। यद्यपि संसार - परिभ्रमण का कारण होने से उन्हें अशुभ ध्यान की श्रेणी में रखा गया है। जैन सिद्धान्तानुसार चित्त की आत्मा के शुद्ध स्वरूप में एकलयता अथवा एकाग्रता ही मोक्षमार्ग में सहायक है और परपदार्थों में एकाग्रता अशुभ प्रवृत्तिरूप है। वे अशुभ अध्यवसाय आर्त्त और रौद्र-ध्यानरूप तो हैं, किन्तु वे हेय या त्याज्य हैं। 59
भीतर की शुभ या शुद्ध परिणति में चित्त की स्थिरता शुभध्यान है । धर्मध्यान और शुक्लध्यान क्रमशः शुद्धध्यान हैं, अतः वे स्वीकार करने योग्य उपादेय हैं।
एकचिन्तात्मको यद्वा, स्वसंविच्चिन्तयोज्झितः । । तत्रात्मन्यसहाये य-च्चिन्तायाः स्यान्निरोधनम् । तद् ध्यानम् तदभाषो वा स्वसंवितिमयश्च सः ।।
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' योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः । - योगसूत्र - 1/2.
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तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् । - योगसूत्र 1/3.
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ध्यानशतक, सं. कन्हैयालाल लोढ़ा एवं डॉ. सुषमा सिंघवी, पृ. 59.
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तत्त्वानुशासनम् 64-65.
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