Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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प्रकाशित है और उसी के आधार पर उनकी परोपकार-परायणता, नम्रता, निरभिमानिता, दार्शनिकता, समन्वयवादिता, उदारता और भवविरहता आदि गुणों को जाना जा सकता है।
साहित्य-रचना में विशेष रुचि होने से उन्होंने अनेक ग्रन्थों की रचना की थी। साहित्य-रचना के लिए उन्हें लल्लिग नाम के श्रावक ने सहयोग दिया था। वह रात्रि के समय हरिभद्र के उपाश्रय में मणि रख दिया करता था, उस मणि की रोशनी में हरिभद्रसूरि अपना लेखन कार्य करते थे।95
इस प्रकार, जिनशासन की प्रभावना करते-करते अध्यात्म-साधना में तल्लीन बनकर हरिभद्रसूरि ने अनशन-व्रत ग्रहण किया और उच्च भावों के साथ त्रयोदशी के दिन स्वर्ग सिधार गए। हरिभद्रसूरि ने अपने ग्रन्थों में जिनभद्रगणि के ग्रन्थगत अवतरणों का उपयोग किया, अतः यह उनके उत्तरवर्ती हैं। हरिभद्र के समय का प्रश्न विवादास्पद है, परन्तु जिनविजय ने अपने तद्विषयक निबन्ध में उनका जीवनकाल प्रायः विक्रम संवत् 757 से 827 तक माना है।” आधुनिक विद्वानों ने भी इसी समय को निर्विवाद रूप से स्वीकार किया है, जबकि प्राचीन परम्परा के अनुसार उनका समय विक्रम की छठवीं शताब्दी माना गया है। टीकाकार हरिभद्र का साहित्यिक-अवदान - विद्वानों के अनुसार, ईसा की आठवीं शती में बहुआयामी प्रतिभा के धनी और अनेक ग्रन्थों के रचयिता आचार्य हरिभद्रसूरि हुए। आचार्य हरिभद्र ने स्वयं तो आध्यात्मिक-ज्ञानगंगा में डुबकी लगाई ही, साथ-ही-साथ समग्र जन-समुदाय में भी, शास्त्रीय-ज्ञान के आलोक से विवेक जाग्रत हो- ऐसा प्रयत्न भी किया। इस हेतु उन्होंने अध्यात्म-प्रधान अनेक ग्रन्थों की रचना भी की।
95 समप्पियं च सूरिणो लल्लिगेण पुव्वागयरयणाणं मज्झाओ जच्चरयणं।
तदुज्जोएण य रयणीए वि दप्पेइ सूरिमिवि पट्ठयाइ सुगंथे।। - कहावली 96 अनशनमनघं विधाय निर्यामकवरविस्मृतहार्दभूरिबाधः ।
त्रिदशवन इव स्थितः समाधौ त्रिदिवमसौ समवापदायुरन्ते।। - प्रभावकचरित्र, पृ. 75. 7 जैन साहित्य संशोधक - वर्ष 1, अंक 1, यह निबन्ध सन् 1919 में अखिल भारतीय प्राच्यविद्या
परिषद में आचार्य श्री जिनविजय ने पढ़ा था। 98 जयसुन्दरविजय लिखित शास्त्रवार्तासमुच्चय की प्रस्तावना में, पृ. 9. 99 (क) जैनधर्म के प्रभावक आचार्य किताब से उद्धृत, पृ. 478. (ख) जैनजगत् के ज्योतिर्धर आचार्य किताब से उद्धृत, पृ. 123.
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