Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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ग्रन्थ के पाठों को लेकर जो भी मतभेद रहे थे, उनका भी टीका में निर्देश कर दिया गया है। इस प्रकार, हम देखते हैं कि यह टीका मूल ग्रन्थ के विषय को समझने की दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण है और इसीलिए ही इसे हमने अपने शोध का विषय बनाया है । टीका की विशेषताओं के सन्दर्भ में हमने उपर्युक्त सामान्य निर्देश दिए हैं। इन्हीं तथ्यों की पुष्टि आचार्य विजयकीर्त्तियशसूरिजी ने 'ध्यानशतक' भाग - 1 के सम्पादकीय में भी की है। उनका कथन गुजराती भाषा में होने से हमने उसका रूपान्तरण हिन्दी में करके लिखा है
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'ध्यानशतकस्य च महार्थत्वात्' पद से शुरू होकर 'नास्ति काचिदसौ क्रिया आगमानुसारेण क्रियमाणा यया साधूनां ध्यानं न भवति' - इस वाक्य से पूर्ण होता है। इसमें न अति संक्षिप्त और न ही अति विस्तृत वर्णन किया है। ऐसे समर्थ शास्त्रकार शिरोमणि श्री हरिभद्रसूरि की प्रस्तुत ग्रन्थ की टीका को देखकर टीका-शैली की विशेषता का वर्णन इस प्रकार है
1. शब्दों के अर्थ को समझने के लिए 'इति' शब्द का उपयोग किया गया है।
2. इत्यर्थः इति यावत्, वगैरह शब्दों के माध्यम से शब्दों के तात्पर्य तक ले गए
हैं ।
3. इतिगम्यते, इति शेषः प्रकरणाद् इति गम्यते, आदि शब्दों के प्रयोग से गाथाओं में जिनका वर्णन नहीं किया गया, ऐसी बातों का समन्वय भी किया गया है ।
4. इतियोगः, इति सम्बन्धः, आदि शब्दों के माध्यम से, गाथाओं का अन्वय कैसे करना, उनको कैसे जोड़ना तथा कैसे अलग-अलग करना इत्यादि बातों का ज्ञान हमें गाथाओं की टीका के अन्तर्गत प्राप्त हो जाता है ।
5. टीका में प्राग्निरूपित शब्दार्थः, प्राग्निरूपितस्वरूपः आदि वचनों का प्रयोग किया, लेकिन इस बात पर उनका विशेष ध्यान था कि पूर्व में निरूपित किए गए शब्दों के अर्थ की पुनरुक्ति न हो जाए ।
6. गाथा की अवतरणिका में इदानीम्, साम्प्रतम्, अथ आदि शब्दों का प्रयोग अत्यधिक मात्रा में हुआ है ।
7. टीका के विषय को पुष्ट करने के लिए अनेक स्थानों पर प्राचीन ग्रन्थों के उदाहरण देकर इसको और भी सुन्दर बनाया गया है।
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