Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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द्वितीय अध्याय
ध्यान की परिभाषा और स्वरूप आध्यात्मिक-साधना के विकास में ध्यान का अति महत्त्वपूर्ण स्थान है, जो प्राचीनकाल से चला आ रहा है। यहां तक कि अतिप्राचीन नगर मोहनजोदड़ो और हड़प्पा से खुदाई में जो सीलें आदि उपलब्ध हुई हैं, उनमें भी ध्यानमुद्रा में योगियों के अंकन पाए जाते हैं।' वैज्ञानिकों का यह मन्तव्य है कि इस सभ्यता का जीवनकाल ईस्वी पूर्व छः हजार से लेकर के दो हजार पांच सौ ईस्वी पूर्व वर्ष तक रहा प्रतीत होता है।'
मोहनजोदड़ो का काल प्राग्वैदिककाल कहलाता है।
इस सन्दर्भ में रामप्रसाद चांदा का कथन है- 'सिन्धु घाटी की अनेक मुद्राओं में न केवल बैठी हुई देवमूर्तियां योग-मुद्रा में है और उस सुदूर अतीत में सिन्धु घाटी में योगमार्ग के प्रचार को सिद्ध करती हैं, बल्कि खड्गासन देवमूर्तियां भी योग -कायोत्सर्ग-मुद्रा में हैं और वह कायोत्सर्ग-ध्यानमुद्रा विशिष्टतया जैन है।
___ इससे यह स्पष्ट होता है कि भारत देश में ध्यान की परम्परा प्राचीन है और साधना के क्षेत्र में सदा उसे सम्माननीय स्थान मिला है। 'ध्यान' वीतरागदशा को प्रकट कराने वाली साधना का अभिन्न अंग भी है। सम्पूर्ण जैन-वाङ्मय का सूक्ष्मता से अध्ययन करने पर यह ज्ञात होता है कि उसमें भी ध्यान की प्रचुर सामग्री है।' 'आचारांग-सूत्र' के नवम अध्याय में वर्णित महावीर की साधना से यह प्रमाणित होता है
1 (क) डवींदरवकंतवदक प्दकने ब्यअपसपंजपवदए श्रवीद डंतीसए अवसनउम 1ए चंहम
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(ख) जैनधर्म और तान्त्रिक-साधना, डॉ सागरमल जैन, अध्याय, 8, पृ. 256. भारतीय इतिहास : एक दृष्टि. ३ भ्पेजवतल व िदबपंदज प्दकपए च्हम. 250 * भारतीय इतिहास : एक दृष्टि. (क) स्थानांग - 10/133.
) इसिभासियाइं (ऋषिभाषित), अध्याय 23.. (ग) उत्तराध्ययनसूत्र - 11/14-27, उत्तराध्ययन - 11/14 की वृहवृत्ति. (घ) ध्यानस्तव, श्लोक 8 से 23 तक. (ङ) समवायांग, समवाय 5. (च) प्रश्न-व्याकरण, संवरद्वार 5. (छ) भगवतीशतक - 25, उददेशक 7. (ज) आवश्यकनियुक्ति – 1458.. (झ) औपपातिकसूत्र 30, पृ. 49-50.. (ञ) पगामसिज्झाय, आवश्यक श्रमणसूत्र.
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