Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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प्रयास या अभ्यास कहलाता है तथा लौकिक-अलौकिक विषयों के प्रति ममत्व का अभाव वैराग्य कहलाता है।
___ सांख्य-दर्शन में ध्यान को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि विषयी मन को निर्विषयी बनाना ध्यान की उच्चतम अवस्था है।45
___ विष्णुपुराण में अन्य विषयों की ओर निःस्पृह होकर परमात्मतत्त्व को केन्द्रित करने वाले ज्ञान की एकाग्रता-विषयक परम्परा को ध्यान कहा गया है।
बौद्ध-परम्परानुसार, ध्यान का अर्थ किसी विषय पर चिन्तन करना है, किन्तु बाह्य-विषयों की आसक्ति से मुक्त होने को ही वस्तुतः ध्यान कहा जाता है।
ध्यान शब्द की इन विभिन्न परिभाषाओं से यह सुस्पष्ट होता है कि शब्दों के द्वारा अलग-अलग व्याख्या-शैली में ध्यान की अलग-अलग परिभाषाएं होने के बावजूद भी मूल सिद्धांततः ये परिभाषाएं एक-दूसरे की विरोधी नहीं हैं। चित्त का संकल्प-विकल्प रूप परिणति से परे होकर निर्विकल्प और निराकार हो जाना ही ध्यान का श्रेष्ठतम स्वरूप है, क्योंकि ध्यान की चरम अवस्था में समस्त संकल्प-विकल्प समाप्त हो जाते हैं। अब, आगे हम ध्यान के स्वरूप की चर्चा करेंगे।
ध्यान का स्वरूप -
आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रवेश करने के लिए ध्यान एक सशक्त माध्यम है, क्योंकि ध्यान से ही आत्मा की शुद्धि, कषाय की मंदता, ध्येय वस्तु पर एकाग्रता, तनाव से मुक्ति तथा आत्मदर्शन और समाधि संभव हैं।
किसी जिज्ञासु ने पूछा कि आखिर ध्यान क्या है ? ध्यान के सामान्य स्वरूप को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि चित्त की वर्तमान पर्याय के प्रति अनासक्त भावपूर्वक जो सुखद अनुभूति होती है, उसी का नाम ध्यान है। कहा गया है
मा चिठ्इ मा जंपह मा चिन्तह किंवि जेण होई थिरो। अप्पा अप्पमि रओ इणमेव परं हवेज्झाणं ।।48
45 सांख्यदर्शन-6/25, महर्षि कपिल. 48 समन्तपासादिका, पृ 145-146. " दि सूत्र ऑव वेलेग, पृ 47.
48 (क) बृहत्द्रव्यसंग्रह, गाथा 56.
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