Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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हटाकर किसी भी एक वस्तु अथवा विषय में एकाग्र किया जाता है, तो वह ध्यान बन जाता है। भगवती-आराधना में ध्यान को परिभाषित करते हुए कहा गया है'चिन्ता-निरोध' से उत्पन्न एकाग्रता या एकलयता ही ध्यान है।
___ आचार्य सोमदेव ने अपनी कृति 'यशस्तिलकचम्पू' में ध्यान के प्रसंग में ध्यान के स्वरूप को बताते हुए कहा है- "अपनी पांचों इन्द्रियों को आत्मोन्मुख बना ले, बाह्य-विषयों से दूर कर ले, तब ही साधक ध्यान में स्थिर होगा।"35
आचार्य कुन्दकुन्द पंचास्तिकाय के अन्तर्गत ध्यान की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि दर्शन तथा ज्ञान से परिपूर्ण और अन्य सभी के पदार्थ के संग से रहित शुद्ध चैतन्यावस्था ही ध्यान है।36
पण्डित बालचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री प्रस्तुत गाथा में 'दंसण्णाणसमग्गं' को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान से परिपूर्ण क्रिया ही ध्यान है, किन्तु डॉ. सागरमल जैन ने अपनी पुस्तक 'जैनसाधना-पद्धति में ध्यान में कहा है"मेरी दृष्टि में यह अर्थ उचित नहीं है। दर्शन और ज्ञान की समग्रता (समग्गं) का अर्थ ज्ञान का भी दर्शन के समान निर्विकल्प हो जाना है। सामान्यतया, ज्ञान विकल्पात्मक होता है और दर्शन निर्विकल्प, किन्तु जब ज्ञान चित्त की विकल्पता से रहित होकर दर्शन से अभिन्न हो जाता है, तो वही ध्यान हो जाता है।"37
अन्यत्र कहा गया है कि ज्ञान से ही ध्यान की सिद्धि होती है।38 __ महापुरुषों का किसी बोध में निमग्न हो जाना ही ध्यान है, क्योंकि वह नियत या अविचलित रहता है। दूसरे शब्दों में, चित्त की एकाग्रता ही ध्यान है।9
37 जैनसाधना-पद्धति में ध्यान पुस्तक से उद्धृत, पृ 18.
38 णाणेण-झाणसिद्धि, वही, पृ 18. ७ (क) ध्यानं च विमले बोधे सदैव हि महात्मनाम।
स्दा प्रसृमरोऽनभ्रे प्रकाशो गगने विधोः ।। - द्वात्रिंशिका चौबीसवीं का पहला. (ख) अभिधानराजेन्द्रकोश, भाग- 4, पृ 1663. 40 कायादि तिहिकिक्कं चित्तं तिव्व मउयं च मज्झं च।
जह सीहस्स गतीओ मंदा य पुता दुया चेव।। – बृहद्कल्पसूत्र, गाथा- 1452. 41 गीता-6/34.
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