Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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अन्तःकरण की तल्लीनतापूर्वक किसी क्रिया, अथवा भाव का होना भी ध्यान है। ध्यान-साधना का पहला सोपान है- एकाग्रता, ध्यान में तल्लीनता, अर्थात् चेतना की वृत्ति का स्थिरीकरण, अथवा विचारों की एकाग्रता परम आवश्यक है। शब्दों में मन की एकाग्रता की क्रिया ध्यान है।15 'योगसार-प्राभृत' की प्रस्तावना में ध्यान को तप, समाधि, धीरोध, स्वान्तनिग्रह, अन्तःसंलीनता, साम्यभाव, समरसीभाव, योगांग आदि के रूपों में भी परिभाषित किया गया है। ध्यान की परिभाषा (जैन-परम्परानुसार) - तत्त्वार्थसूत्र में उमास्वाति ध्यान को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि चेतना का किसी एक पदार्थ पर केन्द्रित होना ध्यान है।"
जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण द्वारा विरचित 'ध्यानशतक' के आधार पर, चित्त को एक वस्तु या विषय में स्थिर करना ध्यान है।18
आगमसार के अनुसार, किसी एक विषय पर केन्द्रित शुभाशुभ विचार को ध्यान कहते हैं।
संयोगवश या बिना संयोग के ही विचार उत्पन्न हो सकते हैं, मन किसी-न-किसी विषय में अवश्य विचरण करता है। उसके विचरण में स्थिरता को ध्यान कहते हैं। शुद्ध चैतन्य की अनुभूति भी इस ध्यान के बिना सम्भव नहीं है। परिस्पन्दन से रहित एकाग्र चिन्तन का निरोध ध्यान है।20
14 'हेमनवरसो' पुस्तक से (जयाचार्य द्वारा लिखित) जैनभारती के सन्दर्भ से, अंक – 8, वर्ष ___2008, पृ. 40. 15 (क) संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ, सम्पादक – स्व. चतुर्वेदी द्वारकाप्रसाद शर्मा, पृ. 575.
(ख) नालंदा विशाल शब्दसागर, पृ. 655.. 16 योगो ध्यानं समाधिश्च धीरोधः स्वान्त निग्रहः । अन्तः संलीनता चेति तत्पयार्था स्मृता बुधैः ।।
- आर्ष 2/12 उद्धृत - योगसारप्राभृत, प्रस्तावना, पृ. 17. " (क) तत्त्वार्थसूत्र - 9/27.
(ख) नवपदार्थ, पृ. 668. 18 ध्यानशतक, गाथा 3. 19 आगमसार, पृ. 167-168.
20 एकाग्रचिन्तानिरोधो यः परिस्पन्देन वर्जितः, तद्ध्यानम्। - तत्त्वानुशासन 56.
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