Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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2. शास्त्रवार्त्तासमुच्चय
3. ब्रह्मसिद्धिसमुच्चय
4. योगबिन्दु
5. योगशतक
6. योगदृष्टिसमुच्चय और स्वोपज्ञवृत्ति
7. योगविंशिका
8. जोगविहाणवीसिया,
9. षोडशक - प्रकरण
10. पंचसूत्र की वृत्ति । 17
उपर्युक्त ग्रन्थों में योग - सम्बन्धी अपूर्व सामग्री प्रस्तुत है । इनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है
1. धर्मबिन्दु
प्रस्तुत ग्रन्थ में गृहस्थ-धर्म का विस्तृत वर्णन है। इसके आठ प्रकरण हैं। सातवें अध्याय में धर्मफल के अन्तर्गत ध्यान का विशेष रूप से वर्णन किया गया है।
2. शास्त्रवार्त्तासमुच्चय इस ग्रन्थ के भी आठ प्रकरण हैं। उनकी श्लोक संख्या क्रमशः 112 + 81 + 44 + 137 + 39 + 63 + 66 + 159 = 701 है। इस ग्रन्थ में सभी दर्शनों के सिद्धान्तों के विवेचन के पश्चात् ज्ञानयोग के स्वरूप, उसके फल आदि पर प्रकाश डाला गया है, साथ ही उन्होंने ध्यान को ही परमयोग अर्थात् मोक्ष का मार्ग बताया है। विक्रम संवत् की सत्रहवीं शताब्दी के मध्यकाल में इस ग्रन्थ को आधार रखकर उपाध्याय यशोविजयजी ने टीका लिखी थी ।
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3. ब्रह्मसिद्धिसमुच्चय प्रस्तुत कृति हरिभद्र की है, ऐसा मुनिश्री पुण्यविजयजी का मन्तव्य है । 118 उनके मत से इसकी एक खण्डित ताड़पत्रीय प्रति, जो उन्हें मिली थी, वह
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इनके जीवन एवं रचनाओं के बारे मे अनेकान्त - जयपताका के खण्ड पहला (पृ. 17 से 29 ) और खण्ड दूसरा (पृ. 10 से 106 ) के अपने अंग्रेजी उपोद्घात में तथा श्री हरिभद्रसूरि षोडशक की प्रस्तावना समराइच्चकहाचरिय के गुजराती अनुवाद विषयक अपने दृष्टिपात आदि में कतिपय बातों का निर्देश किया है। उपदेशमाला और ब्रह्मसिद्धान्तसमुच्चय भी उनकी कृतियां हैं। इनमें भी उपदेशमाला तो आज तक अनुपलब्ध ही है।
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