Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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सके। आकाश में विचरण करने वाले पण्डित को परास्त करने के उद्देश्य से वे हर समय अपने पास सीढ़ी रखते थे, ताकि सीढ़ी की सहायता से उस पण्डित को नीचे उतारकर शास्त्र-चर्चा के लिए ललकार सकें। जम्बू–वृक्ष की शाखा रखने की वजह यह थी कि वे ऐसा मानते थे कि समग्र जम्बूद्वीप में उन जैसा विद्वान् कोई नहीं है। इस प्रकार, हरिभद्र अपने-आपको 'सर्वज्ञ' समझते थे। उन्होंने एक विचित्र संकल्प ले रखा था- 'यदि किसी व्यक्ति द्वारा उच्चारित श्लोक, अथवा कथन का अर्थ ठीक तरह से समझ न पाया, तो मैं तुरन्त उसके चरण-कमलों में शिष्यत्व के रूप में समर्पित हो जाऊंगा।'
उन दिनों यत्र-तत्र-सर्वत्र हरिभद्र के पाण्डित्य का बोलबाला था। चित्तौड़ ही नहीं, पूरे देश में उनके पाण्डित्य की. धाक थी। बड़े-बड़े विद्वान् उनका नाम सुनते ही कांप जाते थे। उस समय उनके हृदय में जैनधर्म के प्रति भी द्वेषभाव था। तत्समय वे जब-जब भी जैन मंदिरों के आसपास से गुजरते, तब-तब बार-बार एक ही बात दोहराते– 'हस्तिना ताड्यमानोपि न गच्छेत् जैन मंदिरं। निरंकुश हाथी के पावों तले कुचला जाना स्वीकार है, लेकिन किसी भी परिस्थिति में जैन मंदिर में प्रवेश करना स्वीकार नहीं है।
एक दिन यह बात वास्तविकता में बदल गई। हरिभद्र अपनी पालकी में बैठकर ठाट-बाट से जनसमुदाय के साथ कहीं जा रहे थे, तभी अचानक एक निरंकुश हाथी पागलों की भांति भागता हुआ पालकी की ओर बढ़ने लगा, जिसे देख जन-समुदाय में भगदड़ मच गई। प्राणों की रक्षा हेतुं सभी इंधर-उधर भागने लगे। हरिभद्र भी अपनी पालकी से कूदकर जैसे-तैसे जान बचाकर निकटवर्ती जैन मंदिर में घुस गए। अपने प्राणों की रक्षा की बात मुख्य होने से वे अपने द्वारा बार-बार कही जाने वाली वही बात भूल गए कि 'हस्तिना ताड्यमानोपि न गच्छेत् जैन मंदिरं ।' हाथी के भय से घबरा कर वे मन्दिर में प्रविष्ट तो हुए, लेकिन वहां भी अपने सम्मुख मन्दिर में प्रतिष्ठित प्रतिमा को देखकर उपहासपूर्वक यह कहने लगे- “तेरी स्थूलकाया से यह प्रतीत होता है कि तू
72 परिभवनमतिर्महावलेपात् क्षितिसलिलाम्बखासिनां बुधानाम् ।
अवदारणजालकाधिरोहण्यपि स दधौ त्रितयं जयाभिलाषी।। स्फुटति जठरमत्रशास्त्रपूरादिति स दधावुदरे सुवर्णपट्टम् । मम सममतिरस्ति नैव जम्बूक्षितिवलये वहते लतां च जम्ब्वाः ।। - प्रभावक चरित्र, पृ. 62
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