Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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मिष्ठान्नभोगी है। इस प्रकार, कट्टर द्वेषपूर्ण दृष्टि से वे जैनधर्म के प्रति सर्वथा उपेक्षा-भाव ही रखते थे।
एक बार राजसभा का विसर्जन होने के बाद वे राजमार्ग से जा रहे थे। मार्ग में स्थित जैन-उपाश्रय में साध्वी-समुदाय की प्रमुख 'याकिनी महत्तरा' संग्रहणी-गाथा का उच्चस्वरपूर्वक पाठ कर रही थीं।
चक्कि दुगं हरिपणगं पणगंचक्कीण केसवो चक्की।
केसव चक्की केसव दुचक्की केसव चक्कीया।। इस स्वरध्वनि ने जैसे ही हरिभद्र के कर्ण को स्पर्श किया, वैसे ही वे विचारमग्न हो गए। मन-ही-मन चिन्तन-मनन चल रहा था। लाख कोशिश के उपरान्त भी वे 'चक्कीदुर्ग' का अर्थ न समझ सके। हरिभद्र के अहं पर यह पहली करारी चोट थी। अर्थबोध की तीव्र उत्कण्ठा ने उन्हें विचलित कर दिया और उन्हें अपने उस संकल्प का स्मरण हो गया। संकल्प के अनुसार, उनके शिष्यत्व को स्वीकार करने की भावना को लेकर हरिभद्र उपाश्रय में उपस्थित हुए। पहली बार विनम्रतापूर्वक करबद्ध मुद्रा में उन्होंने याकिनी महत्तरा से प्रार्थना की- 'प्रसादं कृत्वा अस्य अर्थ कथयतु', अर्थात् कृपा करके मुझे इस श्लोक का अर्थ समझाइए। महत्तराजी ने मंद एवं मधुर स्वरों में कहा“यह शास्त्रीय-पाठ है। इसे गुरु-निर्देश के बिना समझाया नहीं जा सकता।" साध्वी महत्तरा के मार्गदर्शन से, ‘प्रभावकचरित्र -प्रबन्ध' के अनुसार, हरिभद्र पण्डित आचार्य जिनभद्रसूरि के चरणों में उपस्थित हुए।
'पुरातन प्रबन्ध संग्रह' नामक ग्रन्थों के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि हरिभद्र के गुरु जिनभद्र थे, लेकिन कथावली ग्रन्थानुसार हरिभद्रसूरि जिनदत्तंसूरि के शिष्य थे।
73 प्रभावकचरित्र, श्लोक 29. 74 आवश्यकनियुक्ति, गाथा 429.
15 (क) जिनभटमुनिराजराजव्कलशोभवो..... स्वकीयम्।। - प्रभावकचरित्र, पृ. 62.
(ख) ततोजिनभद्राचार्य दर्शनम् प्रतिपत्तिः चारित्रम्। - प्रबन्धकोश, पृ. 24, पंक्ति 14. (ग) तत्र श्री बृहद्गच्छे श्री जिनभद्रसूरयः.। - पुरातन प्रबन्धसंग्रह, पृ. 103.
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