Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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एक बार बौद्धों की अधिष्ठात्री देवी तारा ने वायु-वेग द्वारा पत्र को उड़ाकर लेखशाला में गिरा दिया। उस पत्र के प्रारम्भ में 'नमो जिनाय' लिखा हुआ था। बौद्धाचार्य उस पत्र को देखकर यह समझ गए कि कोई जैन छद्म वेश में उनके पास अध्ययन कर रहा है। बौद्ध-उपाध्याय ने एक युक्ति सोची। परीक्षा के लिए भोजनगृह के द्वार पर एक जिन-प्रतिमा बनाकर उन्होंने सभी शिष्यों से कहा- "जिनप्रतिमा पर पैर रखकर आगे बढ़ो, क्योंकि बौद्ध-आचार्य यह बात अच्छी तरह से जानते थे कि कोई भी जैन जिनबिम्ब पर पैर नहीं रख सकता। सभी शिष्य चरण--निक्षेप कर चल दिए, लेकिन हंस
और परमहंस के समक्ष धर्मसंकट आ गया। वे समझ गए कि यह सब हमारी परीक्षा के लिए किया जा रहा है। वे जिनप्रतिमा पर पैर रखकर नरक की भयंकर वेदना को भुगतना भी नहीं चाहते थे। कहा भी है
- 'नरकफलमिदं न कुर्वहे श्री जिनपतिमूर्द्धनिपादयोर्निवेश। 79 .
गुरुदेव द्वारा बार-बार निषेध करने के बावजूद भी यह कार्य हमने किया, उसी का यह परिणाम है- इस बात का उनको सम्यक् प्रकार से ज्ञान हो गया। उन्हें पश्चाताप हो रहा था कि उन्होंने अपने गुरुदेव की आज्ञा की अवहेलना की है। वे इस बात से अनभिज्ञ नहीं थे कि जैनधर्म में आज्ञा को ही आगम कहा जाता है। आज्ञा के महत्व का मूल्यांकन करते हुए स्वयं हरिभद्रसूरि ने पंचसूत्र की टीका में कहा है- .
आज्ञा आगम उच्यते। आज्ञा हि मोहविषपरममन्त्र, जलं द्वेषादिज्वलनस्य कर्मव्याधि चिकित्साशास्त्रं। कल्पपादपः शिवफलस्य, तदवन्ध्यसाधकत्वेन।'
आज्ञा आगम है। आज्ञा मोहविष–विनाषक परम मन्त्र है, द्वेषादि अग्नि को शान्त करने में जल है, कर्मरोग की चिकित्सा है, मोक्षफल देने में कल्पवृक्ष है। इसी आज्ञा की विराधना से आत्मा में दोषों की वृद्धि होती है, गुण दूर रहते हैं और भवान्तर में दुर्गति होती है।
7° प्रभावकचरित्र, श्लोक 76. 80 आणा हि मोहविसपरमंतो जलं रोसाइजलणस्स कम्मवाहितिगिच्छासत्थं कप्पपायवो सिवफलस्स।।
- राजराजेन्द्र स्वाध्याय, पंचसूत्र-2, पृ. 134. " श्रीमदहरिभद्रसरि रचितव्यासमलंकृतं चिरन्तनाचार्य। - पञ्चसूत्रम्, पृ. 9. . - प्रस्तुत प्रमाण आचार्य हरिभद्रसूरि के दार्शनिक चिंतन का वैशिष्ट्य नामक पुस्तक के प्रथम
अध्याय से लिया गया है। पृ. 77.
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