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जैन राजतरंगिणी
वह मांस नही, वह सस्य नही, वह फल योगियों की मद-मतता के कारण कहे
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होती है। उसने कलेयर परिवर्तन का भी वर्णन किया है— 'यन में प्रवेश कर उन लोगों ने कौतूहल पूर्वक, एक नर कंकाल देखा, जिसके पास दीवाल स्थित था। वह नर चिरकाल तक तपस्या कर योग सिद्धि प्राप्त कर, सर्प के कंचुक के समान गुफा में शरीर त्याग दिया था । ' (१:१:५३) जैनुल आबदीन की योगियो के प्रति भक्ति वर्णन करता है - 'जहाँ पर सहस्रों योगियों के गनाद को बार-बार सुनने के कारण, मानो मानस नाग ने भी चक्षु को बन्द कर लिया था। वह अन्न नही, नहीं, वह भोग नहीं, जिन्हें राजा ने भोजन के समय नहीं खिलाया गये तीन प्रकार की अश्लीलता को भक्ति के कारण, राजा ने सहा, जो सामान्य लोगों के लिये भी असह्य थी। (१:३:४८:५०) द्वादशी के दिन सुन्दर कन्या, तम्बूरा, मुद्रा, दण्डादि देकर, योगियों को भारवाहक बना दिया था । ( १ : ३:५२ ) एक स्थान पर योगियों के पात्र पूजा हेतु जैन वाटिका नामक अन्न सत्र भोगों के कारण विस्मयावह था । पुष्करिणी मध्य, योगी चक्र के अन्दर प्रतिबिम्बित चन्द्रमा भी, जहाँ स्वाद की लिप्सा से ही जाता था। राजा ने सहस्रों योगियों को आँख मूंदने तक भोजन कराकर निष्क्रम्प कर दिया, फिर तृप्ति एवं समाधि से क्या लाभ ? ( १ : ५:४६ - ४८) 'जहाँ पर आनन्द निर्भर, योगियों का भोजन के थम से निकलने वाला पसीना, राजा को प्रसन्न करता था। योगियों के हाथों से लिप्त दधिपूर्ण भोजन के छल से मानो, उसी बीच योग से
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शशिकला का स्राव ही शोभित हो रहा था ।' (१:५:५२-५३) श्रीवर गौरक्ष संहिताकार योगी गौरक्ष का उल्लेख करता है। उससे प्रकट होता है कि ओवर का झुकाव गोरक्ष योग पद्धति की ओर था ( १ : १:३१ ) । योगी गोरक्ष नाथ हठयोग के आचार्य थे । गोरक्ष नाथ जी नाथ सम्प्रदाय के प्रवर्तक माने जाते है । काश्मीरी आचार्य अभिनव गुप्त ने आदर के साथ अपने ग्रन्थों में गोरक्ष के गुरु मत्येन्द्र नाथ का उल्लेख किया है ।
रामायण-महाभारत
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रामायण तथा महाभारत का श्रीवर ने अध्ययन किया था । उसने सर्वाधिक उपमाएँ रामायण तथा महाभारत की घटनाओ से दी है। राम के सेतुवस्य (७:३:१८) रावण पर राम की विजय (१:३:३७), जैनुल आबदीन का राम की तरह विजय कर लौटना, ( १:१:१९) लंका ( १ : ५:३५, ३९ ) विष्णु अवतार, (१ : ५: १०४ ) रघुनन्दन (१७१३६) राम के समक्ष परशुराम का आगमन (४:२६७) रावण एवं सन्मार्ग, (३.४८२ ) परशुराम का क्षत्रिय संहार, (२:१०२ ) राम का वन गमन, वालि सुग्रीव प्रसंग, राम-रावण युद्ध, (४:५४३) गंगावतरण (१:५:२४) आदे अनेक प्रसंगों का वर्णन किया है। जिससे प्रकट होता है कि श्रीवर ने रामायण का गम्भीर अध्ययन किया था।
महाभारत से उसने कौरव पाण्डव युद्ध, यदुवंश संहार ( १:२:८) जैनुल आबदीन की उत्तरायण काल में मृत्यु, (१:७:२२४) कृष्ण का युद्ध के लिए सन्नद्ध होना, ( १ : १ : १४१) खाण्डव बनदाह, (३:२८७) गरूड़ (१:१:१०२) द्रोणाचार्य, भीष्म, कृपाचार्य, कर्ण, दुर्योधन, शल्य, कौरव (१:१:६६) पार्क, ( १:१:३० ) यादव वृत्तान्त, (१:७:१६३) दुर्योधन के साथी शल्य द्वारा सहायता प्राप्त, धर्मराज के प्रति विद्रोह, कर्ण एवं कलह, धृतराष्ट्र वंश का अवसान, कौरवों तुल्य पराजय आदि उपमा देकर, काव्य का सौष्ठव बढाया हैं । ( ४:३४१) कौरव पाण्डप की उपमा उसने सैयिदों तथा काश्मीरियों के दो दलों से दी है । लिखता है इस प्रकार हैवत खां के कहने पर युद्ध के लिए सन्नद्ध बुद्धि, सैयिद पाण्डवों के ऊपर कौरवो के समान, उद्योग शील हो गये ( ४:१६४ ) '
पुराण:
श्रीवर ने प्रतीत होता है, पुराणों का कम अध्ययन किया था। उसने पुराणों से बहुत कम उपमा एवं उदाहरण
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