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प्रथम खण्ड : ३७
सरलता और सहजताके स्रोतोत्तर .श्री लक्ष्मीचन्द्र 'सरोज', जावरा
सिद्धान्ताचार्य पण्डित प्रवर फलचन्द्र जी शास्त्री, उन वरिष्ठ और विशिष्ट विद्वानोंमेंसे हैं, जिनके व्यक्तित्व और कृतित्वसे प्रतिस्पर्धा करना असम्भव नहीं तो काफी कष्ट साध्य अवश्य है। वे बुन्देलखण्डके एक ऐसे कीर्तिमान स्तम्भ है, जिसकी कीति-कथा उत्तर-दक्षिण पूरब-पश्चिममें समान रूपसे मुखरित हुई है।
पण्डितश्रीका जीवन अतीव संघर्ष प्रधान रहा । उनका अपना बहुमुखी व्यक्तित्व है । उन्होंने अपनी लौह लेखनीसे जिस धार्मिक साहित्यका सजन किया, वह उनके अगाध अध्ययन और अमित परिश्रमका परिचायक है। यह कहना कोई अतिशयोक्ति अलंकार नहीं होगा कि पण्डितजी की अनेक कृतियोंने अनेकानेक विद्वानोंको सही अर्थों में विद्वान् बनानेमें सुरुचिपूर्ण सहयोग दिया है ।
आप उच्चकोटिके भाष्यकार, ग्रन्थ-पत्र सम्पादक, लेखक-समाज-सेवक और स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी रहे हैं । आप विख्यात विचारक, कुशल प्रवक्ता, पूर्ण शिक्षक हैं। सरल शब्दोंमें सुलझे विचार रखना, कठिन विषयको सरल बनाकर समझाना, विद्वत्ताके साथ चातुर्य जोड़ना आपका स्वभाव है। सरलता और सहजताके आप एक ही स्रोतोत्तर है । आपके अध्ययन-अनुभव-अभ्यासकी जितनी भी सराहना की जावे, कम है।
बीनाके रत्न •श्री कुन्दनलाल जैन, दिल्ली
आदरणीय पंडित जी स्वतन्त्र विचारोंके व्यक्ति हैं और बड़े ही स्वाभिमानी है । पराधीनता अथवा दूसरोंका अनावश्यक दबाव उन्हें कभी भी स्वीकार्य नहीं रहा । यही कारण है कि किसी भी संस्थामें वे लगातार जमकर कई वर्षों तक नहीं टिक सके। पंडितजीमें राष्ट्रीय भावना कूटकूट कर भरी हुई है। पंडितजीने वाराणसीमें बड़ी ख्याति अर्जित की । विशेषतया सन् १९४२ के स्वातन्त्र्य संग्राममें स्याद्वाद विद्यालयके छात्रोंको पंडितजीका भरपूर मार्गदर्शन प्राप्त हआ, यद्यपि पंडितजी स्या० वि. से सम्बन्धित नहीं थे फिर भी अंग्रेजी नौकरशाहीसे पीड़ित छात्रोंको पंडितजीसे तन मन धनका पूरा सहयोग प्राप्त होता था। भूमिगत छात्रोंकी सुरक्षा तथा आर्थिक सहायता पंडित जी किया करते थे। इस स्वाधीनता आन्दोलनके केन्द्रोंमें स्या०वि०, काशी विद्यापीठ एवं हिन्दू विश्वविद्यालय प्रमुख थे।
आदरणीय पंडितजीके स्वाध्याय और अध्ययन चिन्तन एवं मननका तो कहना ही क्या है, आप तो अगाध पांडित्यके धनी एवं ज्ञानके सागर हैं । यद्यपि वे पुरानी पीढ़ीके विद्वान् कहे जाते हैं पर उनके विचारोंमें नवीनता एवं प्रगतिशीलताका अदभुत समन्वय है। वे रूढ़िवादिता और दकियानूसीपनके प्रबल विरोधी हैं। उन्हें हर तर्कसंगत बात अच्छी लगती है। पराधीनता उन्हें स्वीकार्य नहीं अत: उन्होंने अपना सारा जीवन स्वयंभोजीके रूपमें ही बिताया है, सेठों या धनिकोंकी चापलूसी या खुशामद उन्हें तनिक भी पसन्द नहीं है।
आदरणीय पंडितजी स्वस्थ और प्रसन्न रहते हुए शतायु हों और जैनागमकी सेवा करते रहें इसी हार्दिक शुभ कामनाके साथ उन्हें अपनी प्रणामाञ्जलि प्रस्तुत करते हुए विराम लेता हूँ।
जीवेत शरदः शतम् ।
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