Book Title: Bhagwati Sutra Part 02
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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भगवती सूत्र
श. १२ : उ. ४,५ : सू. ९७-१०२ गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है औदारिक-पुद्गल-परिवर्त औदारिक-पुद्गल-परिवर्त्त है। इसी प्रकार वैक्रिय-पुद्गल-परिवर्त्त भी वक्तव्य है, इतना विशेष है-वैक्रिय-शरीर में वर्तन करते हुए जीव के द्वारा वैक्रिय-शरीर के प्रायोग्य द्रव्यों का वैक्रिय-शरीर के रूप में ग्रहण, शेष पूर्ववत्, इसी प्रकार यावत् आनापान-पुद्गल-परिवर्त, इतना विशेष है-आनापान
के प्रायोग्य समस्त द्रव्यों का आनापान के रूप में ग्रहण, शेष पूर्ववत्। ९८. भंते ! औदारिक-पुद्गल-परिवर्त कितने काल में निर्वर्तित होता है? गौतम ! अनंत-अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी काल में निर्वर्तित निष्पन्न होता है। इसी प्रकार वैक्रिय-पुद्गल-परिवर्त भी।
इसी प्रकार यावत् आनापान-पुद्गल-परिवर्त भी। ९९. भंते ! औदारिक-पुद्गल-परिवर्त-निर्वर्तना-काल, वैक्रिय-पुद्गल-परिवर्त-निर्वर्तना-काल यावत् आनापान-पुद्गल-परिवर्त-निर्वर्तना-काल में कौन किनसे अल्प, बहु, तुल्य अथवा विशेषाधिक है? गौतम ! सबसे अल्प कर्म-पुद्गल-परिवर्त-निर्वर्तना-काल है, तैजस-पुद्गल-परिवर्त-निर्वर्तना-काल कर्म-पुद्गल-परिवर्त से अनंत-गुणा है, औदारिक-पुद्गल-परिवर्त-निर्वर्तना-काल तैजस-पुद्गल-परिवर्त से अनंत-गुणा है, आनापान-पुद्गल-परिवर्त-निर्वर्तना-काल
औदारिक-पुद्गल-परिवर्त से अनंत-गुणा है, मनःपुद्गल-परिवर्त-निर्वर्तना-काल आनापान-पुद्गल-परिवर्त से अनंत-गुणा है, वचन-पुद्गल-परिवर्त-निर्वर्तना-काल मनःपुद्गल-परिवर्त से अनंत-गुणा है, वैक्रिय-पुद्गल-परिवर्त-निर्वर्तना-काल वचन-पुद्गल-परिवर्त से अनंत
-गुण है। १००. भंते ! औदारिक-पुद्गल-परिवर्त यावत् आनापान-पुद्गल-परिवर्त में कौन किनसे
अल्प, बहु, तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? गौतम ! सबसे अल्प वैक्रिय-पुद्गल-परिवर्त है, वचन-पुद्गल-परिवर्त वैक्रिय-पुद्गल-परिवर्त्त से अनंत-गुणा है, मनः-पुद्गल-परिवर्त वचन-पुद्गल-परिवर्त से अनंत-गुणा है, आनापान-पुद्गल-परिवर्त मनः-पुद्गल-परिवर्त से अनंत-गुणा है, औदारिक-पुद्गल-परिवर्त आनापान-पुद्गल-परिवर्त से अनंत-गुणा है, तैजस-पुद्गल-परिवर्त्त औदारिक-पुद्गल-परिवर्त से अनंत-गुणा है और कर्म-पुद्गल-परिवर्त तैजस-पुद्गल-परिवर्त से अनंत-गुणा है। १०१. भंते ! वह ऐसा ही है। भंते ! वह ऐसा ही है। इस प्रकार भगवान् यावत् विहरण करने
लगे।
पांचवां उद्देशक वर्णादि और अवर्णादि की अपेक्षा द्रव्य-विमर्श-पद १०२. राजगृह नाम का नगर यावत् गौतम स्वामी पर्युपासना करते हुए इस प्रकार बोले भंते ! प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह ये कितने वर्ण, कितने गन्ध, कितने रस और कितने स्पर्श वाले प्रज्ञप्त हैं?
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