________________
ब्रह्माद्वैतवाद का खण्डन ]
तृतीय भाग
| अद्वैतशब्दो नञ्समासयुक्तोऽतः स्वविरोधवास्तविकं द्वैतमपेक्षत इति जैनाचार्याः समर्थयन्ति । ]
कथं पुनर्हेतुना विनाऽहेतुरिवाद्वैतं द्वैताद्विना न सिध्यतीति निश्चितमिति चेदुच्यते, अद्वैतशब्दः स्वाभिधेयप्रत्यनीकपरमार्थापेक्षो' नञ्पूर्वाखण्डपदत्वादहेत्वभिधानवदित्यनुमानात् । अनेकान्तशब्देन व्यभिचार इति चेन्न तस्यापि सम्यगेकान्तेन विनानुपपद्यमानत्वात् । एवममायादिशब्देनापि न व्यभिचारस्तस्य ' मायादिनाऽविनाभावित्वात् । तथा
[ अद्वैत शब्द नव् समास वाला है अतः अपने विरोधी वास्तविक द्वैत की अपेक्षा रखता है, ऐसा जैनाचार्य समर्थन करते हैं । ]
[ २३
अद्वैतवादी - हेतु के बिना अहेतु के समान ही द्वैत के बिना अद्वैत सिद्ध नहीं हो सकता है । यह बात आपने कैसे निश्चित की है ?
जैन - कहते हैं, "अद्वैत शब्द अपने वाच्य अद्वैत से विरुद्ध द्वैत रूप परमार्थ की अपेक्षा करने वाला है क्योंकि वह नञ् समास पूर्वक अखण्ड पद है जैसे अहेतु शब्द । इस अनुमान से उक्त कथन सिद्ध है ।"
अद्वैतवादी - अनेकांत शब्द से व्यभिचार आता है अर्थात् आपका अनेकांत भी एकांत की अपेक्षा लेकर प्रवृत्त होगा, क्योंकि यह अनेकांत शब्द भी नञ्पूर्वक अखण्ड पद है किन्तु अपने वाच्य से विपरीत किसी वास्तविक वस्तु की अपेक्षा करने वाला नहीं है ।
जैन - आप ऐसा व्यभिचार दोष हमें नहीं दे सकते। क्योंकि हमारा अनेकांत भी सुनय से अर्पित सम्यक् एकांत के बिना हो नहीं सकता है । इसी प्रकार से "अमाया" आदि शब्द से भी व्यभिचार नहीं आता है, वे अमाया आदि शब्द भी माया आदि के साथ अविनाभावी हैं । नञ् को पूर्व में ग्रहण करने से केवल शब्द "द्वैत, माया" इत्यादि से भी व्यभिचार का खण्डन कर दिया गया है एवं "गौ, अश्व:" इत्यादि पद हैं । तथा "ग्, अश्” आदि शब्द उन पदों के एक देश होने से पदांश हैं। अनुमान वाक्य में "अखण्ड" पद के ग्रहण करने से उस पदांश के साथ भी व्यभिचार नहीं आता है और अखरविषाणादि शब्द से भी व्यभिचार नहीं आता है अर्थात् "अखर" यह नञ् समास पूर्वक अखण्ड पद है जो कि अपने वाच्य अखर से विरुद्ध "खर" शब्द की वास्तविक रूप से अपेक्षा रखता है किन्तु अखर विषाणादि शब्द नहीं क्योंकि उनमें अखण्ड पद का अभाव है। अखर विषाण में दो पद हैं खर और विषाण । न खरविषाणं = अखर विषाण । ऐसा समास हुआ है अत: इसमें अनेक पद हैं इसलिये "अखण्ड” इस पद से "पदांश" और "अनेकपद समुदाय" इन दोनों की व्यावृत्ति हो जाती
1 स्वस्याद्वैतस्याभिधेयोऽर्थः किमक्यं तस्य प्रत्यनोकं द्वैतं कोर्थोऽनेकत्वं परमार्थभूतमपेक्षत इति । दि० प्र० । 2 शब्दः । ब्या० प्र० । 3 आह परः हे स्याद्वादिन् नञ् पूर्वाखण्डपदत्वादिति हेतोरनेकान्तेन व्यभिचारः । अनेकान्ते एकान्तापेक्षस्तदात्वन्मतहानिः । स्याद्वादिन् । एकांताङ्गीकरणाभावात् । सापेक्षस्तदा हेतोर्व्यभिचारं इति चेत् । न । तस्याप्यनेकान्तशब्दस्यापि सम्यगनेकान्तसापेक्षलक्षणं यत् एकान्तं तेन विनोत्पत्तिर्नास्ति । दि० प्र० । 4 at: 1 दि० प्र० । 5 अमायादिशब्दस्य । दि० प्र० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org