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क्षणिक एकांत का निराकरण एवं अवक्तव्यवाद का निराकरण ]
तृतीय भाग [ १६५
सुखादिपरिणामेभ्यो भिन्नस्य वस्तुनो व्यापकस्यात्मत्वादर्थभेदाभावात् । तथा नामान्तरकरणे च नित्यानित्यविकल्पानुपपत्तेर्नान्यः संतानो वास्तवः स्यात् ।
[ संतानो नित्योऽनित्यो वेति विकल्प्योभयपक्षे दूषणमवतारयति । ] नित्यविकल्पे तस्य संतानिव्यापकत्वाभावोऽनेकस्वभावेन तद्व्यापकत्वे तस्य नित्यकरूपत्वविरोधात् । एकस्वभावेन तव्यापकत्वे संतानिनामेकरूपत्वापत्तेः कुतः संतानः' ? अनेकव्यापिनः क्रमशः संतानत्वात् । तदनित्ये विकल्पेपि न संतानः, संतानिवर्दोदादेकप्रत्यवमर्शाविषयत्वात् ।
आत्मा का ही 'संतान' यह नाम धर दिया है। क्योंकि सुखादि परिणामों से भिन्न और व्यापक वस्तु ही आत्मा है अतः उसमें अर्थ भेद का अभाव है और उस प्रकार से आत्मा का ही "संतान" यह भिन्न नाम करने पर नित्य और अनित्य रूप विकल्प उठाने से संतान की सिद्धि नहीं हो सकती है। अतः अन्य संतान वास्तविक नहीं हो सकती है।
[ संतान नित्य है या अनित्य है ? इस प्रकार से दोनों विकल्पों में दूषण दिखाते हैं ]
यदि आप नित्य विकल्प स्वीकार करेंगे तब तो वह संतान संतानी से व्यापक नहीं हो सकेगा क्योंकि आपने संतानी को अनित्य माना है अतः वह नित्य संतान के साथ कैसे व्याप्त होगा? और यदि आप व्यापक मानें तब वह संतान संतानी के साथ अनेक स्वभाव से व्याप्त होता है या एक स्वभाव से ? यदि अनेक स्वभाव से व्यापक मानें तब तो वह संतान नित्य एक रूप नहीं रहेगा क्योंकि अनेक स्वभाव वाला हो गया। और यदि कहो कि एक स्वभाव से व्यापक है तब तो संतानी को भी एक रूपता का प्रसंग आ जायेगा। पुनः संतान कैसे सिद्ध हो सकेगी? क्योंकि संतान तो क्रम-क्रम से अनेकों में व्याप्त होती है और यदि आप संतान को अनित्य मानने रूप दूसरा पक्ष स्वीकार करते हैं । जब तो उस अनित्य विकल्प में भी संतान सिद्ध नहीं होगा। क्योंकि संतानी के समान भेदरूप होने से एकत्व प्रत्यभिज्ञान का विषय नहीं हो सकेगा।
भावार्थ-पहले यह विकल्प उठाया है कि संतान नित्य है या अनित्य ! पुनः नित्य पक्ष में दूषण दिखलाते हुये यह प्रश्न किया है कि यदि संतान संतानी के साथ व्याप्त है तो अनेक स्वभाव से या एक स्वभाव से ? पुनः इन दोनों पक्षों में दोष दिखा कर मूल के संतान को अनित्य मानने के पक्ष
1 किञ्च । दि०प्र०। 2 स्याद्वाद्याह हे सौगत आत्मनः सन्तानेत्यन्यनामकरणे नित्यानित्यविकल्पो नोपपद्यते । सन्तानिभ्योऽन्यो भिन्नः सन्तानः परमार्थे न स्यात् =हे सौगत सन्तानो नित्योऽनित्यो वेतिप्रश्नः। दि० प्र०। 3 सन्तानिभ्यो भिन्नः । ब्या प्र०। 4 सन्तानस्य । दि० प्र०। 5 व्याप्नोतीति चेत् एकेन स्वभावेन अनेकेन वा । दि० प्र०। 6 सन्तानिनां व्यापको न भवेत्सन्तानः । दि० प्र०। 7 क्षणानाम् । दि० प्र०। ४ एकरूपत्वापत्तावपि सन्तानः कुतो न भवेदित्याशङ्कायामाह । दि० प्र०। 9 भिन्नेषु क्षणेषु । दि० प्र० ।
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